दस कविताएँ / रमाकांत रथ / दिनेश कुमार माली
रचनाकार: रमाकांत रथ(1934)
जन्मस्थान: पुरी
कविता संग्रह: केते दिनर (1962), अनेक कोठरी(1967), संदिग्ध मृदया(1971), सप्तमऋतु(1977), सचित्र अंधार(1982), श्रीराधा (1985), श्रीपलातक(1996)
1.जहाज आएगा
आज वह जहाज आएगा .........
जिससे एक दिन इस जगह पर
उतरा था मैं
आज इस जगह को छोड़कर उसमें
चला जाऊंगा मैं
सालों साल बीत गए इसी समुद्र के किनारे
कितनी बातें की थी मैंने इन लहरों के साथ !
जो बातें उनको कही थी मैंने और
जो बातें उनसे सुनी थी मैंने
वे लहरें अब आज कहाँ हैं ?
कहाँ हैं वे लहरें ,
जिनके साथ रहते समय
लग रहा था मुझे
यह मेरा पुण्य कर्म है !
जिनको देखे बिना
हर दिन,हर पल एक डर-सा लगा रहता था ,
शायद अब कभी उनको सुनने का अवसर नहीं मिल सकें
और ना ही मेरी अंतिम सांस तक
उनसे कभी मुलाकात हो सकें
सोच रहा था अगर अचानक
मेरे जहाज का यहाँ लंगर लग जाता
और मैं पहुँच जाता वहाँ
जहाँ पुरानी स्मृतियाँ विलुप्त हो जातीं
कहो, तुम ही समुद्र !
कब तुम मेरा जहाज यहाँ लाओगे
या केवल ऊँची-ऊँची लहरें दिखाकर
"जहाज आ रहा है" कहकर
मुझे अँधेरे में रखोगे
जो नहीं है वह है, यही सोचकर
अब तक मैं जीता आ रहा हूँ
तुमने क्या यही सोच रखा है
कि अंतिम चिट्ठी खोलकर पढ़ने से
पहले मैं मर जाऊं ?
समुद्र, मैं जानता हूँ
तुम्हारे लिए मैं क्या मायने रखता हूँ ?
न रहने की तकदीर लिखाकर लाई हुई
अनेक लहरों के भीतर की एक लहर,
एक बालूकण हूँ मैं
जहाँ घास कभी उगती नहीं
ऐसा बालूचर हूँ मैं !
मेरी बात तुम क्या सुनोगे ?
तुम तो मेरे नाम के खूनी हो
तुम्हारे लिए मैं कब था ?
तुम जल होते हुए भी
अग्नि की तरह मेरे चारों तरफ मौजूद हो !
तुम हलाहल हो ,
तुम रसातल हो ,
तुम एक गोदाम हो
अस्थायीत्व के !
2. ओड़िशा
अँधेरे घर में मुझे
उसका चेहरा दिखाई देता है
बिना शरीर का है वह ,मगर हँस रहा है
आधी रात को अट्टहास करती देवी की तरह;
उसे तो यह भी पता नहीं है
कि कोई उसे निर्निमेष नेत्रों से देख रहा है
वह उदास चेहरा स्पष्ट दिखाई दे रहा है
चंद्रमा की श्वेत धवल चांदनी में पर्वतों की तरह;
सांझ को अग्नि-प्रज्ज्वलन के समय गर्दिश में यायावरों की तरह
वह चेहरा एक अंतहीन सड़क
जिसके दोनों तरफ हैं दुखों के लम्बे-लम्बे वृक्ष
वह चेहरा महानदी का चिदाकाश
जिसमें ब्रह्माण्ड के समस्त तारें कूदकर
ले रहे हैं अथाह जल-समाधि
वह चेहरा एक यादगार
जिसमे हजारों हजारों वर्ष पहले घटी हुई
घटनाएं ऐसे लग रही हैं मानो अभी- अभी घटी हो
चिर-परिचित लोगों के दल
मरणोपरांत लौट आ रहे हो
धूपबत्ती के चारों तरफ फैले सुवास में
जो-जो शब्द कहने जा रहा था मैं
वे सारे शब्द अचानक विलुप्त हो गए
मेरे शैशव- अरण्य के नीले रंग के कोहरे जैसे
वह चेहरा फ़ैल रहा है अनगिनत सीढियाँ चढ़कर
एक आकाश से दूसरे आकाश में
वह चेहरा,
चल रहा है कृशकाय पेटू बच्चे की तरह;
भीख मांग रहा है रास्ते में;
देख रहा है बच्चों को बेचकर हँसती हुई
घूम रही वेश्या की तरह तिरछी निगाहों से
वह चेहरा पकड़ रहा है झपट कर
सैन्यबल लेकर आते हुए सूरज को वर्षा रहित दिनों में
और मेरा अस्तित्व विलीन होते समय
भींच रहा है मुझे जोर से अपनी छाती में
मै देख रहा हूँ उसकी आँखों से झरते टप-टप आँसू
उसके होंठों पर कोई हलचल नहीं,
फिर भी मुझे स्पष्ट सुनाई दे रहा है उसका स्वर
कहते हुए , हमारी फिर एक बार मुलाक़ात होगी
मै देख रहा हूँ
उस चेहरे के खुले दोनों होंठों में
ओलावृष्टि से मर्माहत तितली के
दोनों रंग-बिरंगे पंखों तुल्य प्रसार
3.संबंध
१
पिछले जन्म में सिर धोकर
बाल सुखाते समय उसका हँसना
रो धोकर उसका आँसू पोंछना
मैंने देखा है .
ऐसा हुआ उस दिन
उसके भीगे बाल भीगे ही रह गए
इससे वजन इतना बढ़ा कि उसकी गर्दन झुक गई
उस झुकी गर्दन पर किसी ने प्रहार किया.
ऐसा हुआ उस दिन
बाल सूखने से पहले उसके आँसू बह गए
आँसू गिरे जहां
उस जगह पर बहुत पहले
पत्थर का रथ और पहिया बन रहे थे
वहां पर बसन्त ऋतु में
मेरा कोई साथी नहीं था ,
झाऊँ-वन ,नारियल पेड़ों के झुरमुट में
खिलते कमल के फूल
बटोहियों का मन मोह रहे थे .
२
उस दिन के बाद प्रार्थना बंद हो गई
फिर न तो मन के भीतर घंटी बजी
और न ही घी के दीये की रोशनी में
आँखों में वह चमक उभरी
उस दिन के बाद बादलों और समुद्र के
देवताओं में बातचीत बंद हो गई
उस दिन से बादलों में जल-वाष्प और
समुद्र में बचा था केवल थोड़ा नमकीन पानी
आकाश में केवल चमकीले तारें और
रास्ता बन गया हत्यारों की छावनी
भाषा झूठे कथाकारों का रहस्य
समय कुछ भी नहीं
मेरे और भगवान् के झूठे संबंधो की
षडऋतु अनुयायी
एक अलिखित किताब के छह अध्याय
३
उसके बाद इतना डर कि
चन्द्र-किरणों या तारों के सौन्दर्य की कथा किसी को याद नहीं
सारे वर्तमान सपनों की कुत्सित कहानी
कौन है वह अवसर देखते ही छीन लेता है प्रफुल्लित चेहरों की आभा ?
नर्क का इतना लम्बा समय!
कब ख़त्म होगा ?
ममता के निषिद्ध शब्द की परिपूर्ण आत्मकथा ?
मै चीत्कार करता हूँ
मेरे भाग्य को धिक्कारता हूँ
धिक्कार के उस प्रकाश को मैंने देखा था
किसी पिछले जन्म में
फिर भी मन को ऐसा लग रहा है
उसकी स्मृति इस जन्म में भी मौजूद है
लगता है आशा और इतिहास मेरे नहीं है
दूसरे अनेक लोगों की तरह
उस स्मृति में सड़े मांस की बदबू आती है
और अगरबत्ती की खुशबू
जो जला रही है माता के मंदिर में
भीगे बालों वाली एक बेटी को !
बहुत सालों बाद इस सूखी जमीन पर
भीगे बादल उतर रहे हैं
मेरी मृत्यु के आस-पास
मेरे जीवन के आखिरी समय
4.परमायु
एक भी प्रश्न पूछे बिना
मैंने तुमको अपना जीवन दिया
जीवन-दान स्वभाविक था क्योंकि तुमने
मौत की तरह आँचल पसार रखे थे
नहीं तो , मौत के भय का भयानक चेहरा
मेरे आगे क्यों फेंक दिया ?
तुम्हारे पास तो हर समय नील गगन था
नरम नरम धूप थी
हल्के सफ़ेद बादलों की घटा थी
अरण्य में भटकते निर्वासित लोगों
की मासूम हँसी थी
चिड़ियों की चहचहाहट थी
जीवित पहाड़ों की अचानक जोर- जोर से
लेने वाली साँस थी
मै तुम्हें कई बार समझ नहीं पाया
तुम किससे बने हो ?
हमारे असंख्य भय के अन्दर छिपे साहस से
या चांदनी में पड़ी बन्दूक की नाल से
जल्लाद की आँखों के किसी कोने में
चमकते हुए आंसू से .
तुम क्या वह समय हो ,
जो पृथ्वी के बरामदे में चुपचाप खड़े हो गए थे ?
जब सड़कें खून से धोई जा रही थीं
जब इस्पात और शिशुओं की अस्थियों से
दीवार को मजबूत किया जा रहा था
मैंने कुछ भी नहीं पूछा,
केवल देखा जितनी दूर तक मेरी निगाहें जा सकती थीं
चारों तरफ फूल ही फूल
पत्थर का हर टुकड़ा माणिक और हर सड़ी हुई लाश
खड़ी होकर शरीर से कीचड़ पोंछ रही थीं
हर झूठी बात जलकर राख बन रही थी
हर हिंसक हाथ धूल में मिल रहा था
हर यंत्रणा ऐसे लग रही थी मानो
स्मृति-विभ्रम के सिवाय और कुछ भी नहीं हो.
तुम्हारी साँस के अन्दर जाते समय मुझे
कहीं कोई अमंगलकारी खबर नहीं मिली
असमय उल्लू के रोने की आवाज नहीं सुनाई पड़ी
ना ही किसी सियार या कुत्ते के भोंकने का स्वर सुनाई पड़ा
बल्कि बहुत दिन पुराना सपना साकार होते दिखा
मरुभूमि श्यामल दिखने लगी
धरती के समस्त अनाथालयों के
सारे बच्चें चलते बनें .
सारे जेलखानों को लेकर सारे पहरेदार रफू-चक्कर हो गए
मैंने देखा तुम्हारे सिर पर एक भी सफ़ेद
बाल नहीं था और ना ही
तुम्हारे शरीर पर किसी चोट का कोई नामोनिशान था
मैं बिना मरे कैसे रह पाता ,
युगों-युगों से ताकने वाली आँखों के इशारों के बाद
तुमको छूने मात्र से मुझे लगा
असंख्य पुरानी यात्राओं की उत्तेजना
फिर से प्रज्ज्वलित हो गई हो
मेरे मांस, मेरी शिरा-धमनियों में
.और मैं एक जहाज की तरह
तैरता जा रहा हूँ
थलकूलविहीन अंतरंग समुद्र में ।
5.सूर्यास्त
सूर्य अस्ताचल को चला है
धूप अलग कर रही है पेड़-पौधों को
कहीं पर धूप ,कहीं पर छाया
तब भी पर्वत चमक रहे हैं
जिन पर सूर्य के संग्राम का अंत होगा
पश्चिम आकाश में क्रंदन की लालिमा
देखकर चिड़ियाँ रो रही हैं
अब पेड़-पौधों पर रोशनी का और अंश नहीं
आकाश में घुप अँधेरा
पक्षी नीरव .
कैसे संभव इतना अँधियारा और इतना भय ?
लग रहा है आजीवन अँधेरा ही था
हजारों वर्ष पूर्व कभी सूर्य उदय हुआ था
तरह- तरह के रंगीन सपनों
का वह एकमात्र समय था.
मगर शब्दों में नहीं था उसके आदि और
अंत को लिपिबद्ध करने का साहस ,
अभी मेरे कान के पास सुनाई दे रहे हैं
रात के निर्लिप्त स्वर ,
एक नीरवता है सूर्य
जो पवन की दीवार पर टंगी हुई
टिक- टिक आवाज करनेवाली घड़ी
की तरह आकाशमार्ग में अभी भी दृश्यमान है।
6. दुःख का निर्मम मन
आंतक से स्तब्ध स्वर
समय के किसी कोने में काजल-सी काली
कोठरी में भयानक चीत्कार
बिना किसी सूर्य-रश्मियों के, बिना किसी प्रकाश के
सूखे पत्तों के ऊपर चलते हुए कतारबद्ध टैंको की
घरघराहट के शुष्क स्वर
विस्फोटों की आवाज,
अपनों की तालाश में रोते-बिलखते शिशुओं के क्रंदन की तरह
साल के महीनों के भान नहीं होने के भूले बिसरे स्वर
एक मुंडमाला को नहीं गिन पाने के स्वर
अपदस्थ स्वर,
आँखें फूटने के स्वर
आकाश में हजारो सीढीयों के ऊपर दिखाई देती
एक सुन्दर हंसी के साथ जलती हुई आग
आहिस्ता- आहिस्ता नीचे उतरती हुई
जिस प्रकार एक नई नदी जंगल में अपना
रास्ता खोजती हुई आगे बढती जा रही हो.
प्रथम पंक्ति के कई टैंक भस्मीभूत
फिर भी अनेक टैंको के कारखानों में
शहर, कस्बे ,गली-नुक्कड़ पर आयुध-भण्डार
फिर भी किसानों का रोना
बच्चों का बिलखना
फिर सुनाई पड़ना उनके भूख के स्वर
उनका कलेवर नहीं हैं
मगर उनकी भयानक निष्ठुर यादें
मानो प्रतीक्षा में तरह- तरह के सपने
बुनते हुए समय काट रही हो और
उनके किसी भी सपने में क्षमा करुणा का नाम नहीं ।
7.यहाँ सिर्फ मालगाड़ी रहती है
मैंने अपने से कहा
हर पल के लिए सावधान रहो
वह आज आ सकता है या कई सालों के बाद
किन्तु आना अवश्यम्भावी है उसका
वह लौट सकता है या
रह सकता है जीवन पर्यंत
घडी के पैमाने से मापा नहीं जा सकता उसको
पलक झपकते ही ओझल हो सकता है
या टिका रह सकता है प्रत्येक रात्रि में
सदियों से सुनाई देने वाले
घोड़ों के टापों की तरह
उसी समय,
संत्रास की चिकनी माटी से
गढ़ी जाती है एक मूर्ति
और उसको अंधेरों से पोतकर बैठा दिया जाता है
हवा प्रकाश अवरुद्धकर
घर के दरवाजे के सामने
उसी क्षण,
फूल मुरझा जाते हैं
अनेक राक्षस रास्तों पर निकल पड़ते हैं
क्रूर हंसी हंसते हुए
असंख्य बंदूकों की नाल
इस तरफ किए हुए
तभी झरोखों के कांच गिरने लगते हैं
इस तरह मालगाड़ी के किसी डिब्बे में
ढोए जाते हैं बचपन के दिन
देखते- देखते बाकी जो बच जाते हैं
उन पर तत्काल फफूंदी लग जाती हैं
मंदिर की परिधि के भीतर
गली का कुत्ता
निर्जन घर की दीवार पर
पूर्वजों की तालिका
ज्वालामुखी की छाया तले
बालूचर में मौत की एक घाटी
सुदूर से सुनाई पड़ता है
जाना पहचाना स्वर
नाम पुकारते हुए
वह क्षण शब्दातीत
उसी क्षण मुँह की आवाज बंद
तुम्हारी वेशभूषा पहनकर मूर्ति बाहर
चली जाती है
फिर वे दोनों बाहर हाथ पकड़कर घूमते होंगे
आकाश में चाँद यौवन पर होगा
मलय पवन बह रही होगा
उसी क्षण सभी बंदूकों में हलचल होगी
लाश बटोरने के लिए लौट रही होगी
एक मालगाड़ी ।
8.प्रकृति की संतान
अनेक बार मै इस जंगल के अन्दर
गया हूँ, फिर पता नहीं आज क्यों
यह काला और मरा हुआ सा दिख रहा है
पता नहीं, आज धूप खिल क्यों नहीं रही है?
कहीं ऐसा तो नहीं
पाताल में जल रहे संगीत के धुएं से
सचराचर आच्छादित हो गया हो ?
पत्ते निश्छल होकर पहरेदारों की तरह
उस बालिका की हत्या को देख रहे हों
समुद्र की काली कलूटी सुरंग से
जिसको वे लाये थे
झुलाते हुए गीतों की डोली में
रोगी वृद्धों की तरह पर्वतमालाएं
तालाबंद अस्पताल के आगे
खड़े होकर विस्मित भाषा में गपिया रही हो
अपने बचपन के दिनों के बारे में
नई- नई अप्सराएं कहीं रो तो नहीं रही हैं
जो समर्पित कर आई हैं
बहुत दिनों से सर्कस-पार्टी में
अपने दुःख और आंसू
अपने निरक्षर मासूम बच्चों की दुनिया में
जंगल मुझे लगातार आशीष दे रहा है
दम तोड़ते हुए
मुझे अपने सीने से चिपकाकर
जैसे कोई माँ अपने शिशु को
नीलवर्ण- भाग्य लिए
एक ही जहर , एक ही खून बहता है
मेरी देह में और मेरी माँ की देह में ।
9.यशोदा
मैं तुमको सुला दूँगी
मेरी छाती के कंटीले जंगल में
सजा दूँगी तुम्हारे बिखरे बालों को
मरुभूमि की पवन से
पहना दूँगी तुम्हे समुद्र और समग्र आकाश
और खेलने के लिए दूँगी
तुझे निर्वासित लोगों के श्वास
तुम और मै जाएँगे
उस आरोग्य-धाम को
जहां बच्चे खाली अस्पताल की
कोठरी के भीतर खेल रहे होंगे
जहां मेरा भाग्यफल अलग होगा
और तुम्हारा भाग्य हर दिन
मेरे पल्लू से बंधा होगा
यहाँ तुम्हारी खोज चल रही है
आंसू और आसक्ति के कोहरे के बीच
और तुम किसी लहर के ऊपर
बैठकर मस्त हंस रहे हो
कोई यह नहीं देख रहा है इधर
रो- रोकर मेरामुंह सूज गया है
सभी को दिखाई देता हैं केवल
गायों के लौटते झुण्ड
तत्पश्चात केवल रिक्त स्थान
मै अच्छी तरह से देख रही हूँ
तुम्हारे भीतर धधकती ज्वाला को
मेरे पागलपन का अत्यंत ही मनोरम सपना
सारी रात ,सारा दिन ऐसे ही लगा रहे
मगर तुम एक भारद्वाज चिड़िया
बनकर बैठे हुए हो
किसी मैदानी पेड की शाखा पर
.
तुम्हारे कोटि- कोटि रूप है
एक से बढ़कर एक सुन्दरतर
यहाँ पर तो कोई रास्ता नहीं है
फिर भी मै यहाँ कैसे आ गई ?
यहाँ सृष्टि के सारे लोक सारे पशु-पक्षी
मेरे और तुम्हारे भीतर
देखते-ही- देखते
सभी नदी पेड और पर्वत
परिणत हो जाते हैं
केवल एक नदी पेड़ और पर्वत में
मै उस पेड की छाया तले विश्राम करती हूँ
तुमको मेरी भीगी छाती से चिपकाकर
तुम्हारे लिए गीत गाती हूँ
पर पता नहीं चल रहा है
वे गीत सुनाई पड़ रहे है
मेरे स्वर में या मेरे पुत्र के स्वर में ।
10.कर्फ्यू
भग्न-घरों की छाया में
वीरान अँधेरी रात में
ठंड से ठिठुरती गली में
हमारी मुलाक़ात हुई
तुम्हारे घने बालों को सहलाते समय
मुझे ऐसा लगा जैसे हाथ सुन्न हो गए हो
और तुम्हारे बाल एक विस्तीर्ण तुषारावृत्त निर्मम-स्थान हो
अचानक जब मै हकीकत की दुनिया में लौटा
एक बार फिर तुम्हारे बालों को सहलाते हुए लग रहा था
वह दावानल है और मैं एक निर्वासित ,शक्तिहीन,असमर्थ वृद्ध
आग के धीरे-धीरे संकुचित होते वृत्त के अन्दर
एक लावारिस अरक्षित मनुष्य
जिसका भविष्य टिका है अंगारों के ढेर पर
तुम्हारी कथा सुनता हूँ बहुत उंचाई तक
उड़ते हुए बमवर्षक विमानों की आवाज में
तुम्हारे स्वर में सुनाई पड़ रही हैं
टैंकों की घरघराहट तथा सैनिकों के पदचाप
तुम उस घोर आंतक के अंश हो
जिसके इतिहास में हर थोड़े अंतराल में पुनरावृति होती है
पुराने घाव भरने से पहले ही
नए- नए जख्म लगने शुरू होते हैं
सब दरवाजे बंद
सब घर में सन्नाटा
सबका हँसना-रोना
सबकी सुबह-शाम ,
सब धान के खेत, फूलों के बगीचे, झरनें
कौन सी जगह पर ?
कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा हो
केवल मैं सहला रहा हूँ
एक निष्प्रदीप महाशून्य के काल्पनिक सिर के बालों को
जो सने हुए हैं बारूद की गंध से और
उत्पीडित शैशव-काल से अब तक के उष्म-रक्त से
जिसके भीतर छुपे हुए व्यर्थ होने के लिए
ख़ूब सारे अभिप्रेत सपनें
ज्वालामुखी के उतप्त लावा की तरह बहते हुए
वे बाल एक पल में पोंछ देते हैं
एक मुर्दा गाँव और शहर को ,
मिटा देते हैं शत्रुता और परिहास की दुर्गन्ध को,
बहते रहते हैं मेरे अंगारमय शरीर के अन्दर
और दे जाते हैं अचल टैंक और एक कदम चलने में असमर्थ
पलटन के अन्दर निरुद्विग्न मरुभूमि
जहां कभी कांटो का जंगल था
ना कोई पत्ते थे ना कोई फूल
आकाश में अचानक उजाला होने के साथ
काल रात्रि से बाहर निकली अंसंख्य चिड़ियाँ
कोलाहल करते हुए उड़ जाने को तत्पर
अब बच्चों के खेलने के लिए रास्ता निरापद
अब झरोखों और किवाड़ों का खुलना
अब मै मुक्त पवन हूँ
तुम्हारे घने बालो को सहला नहीं पाकर
सहला रहा हूँ सूर्य चंद्रमा,सरकंडो
और समुद्री-फेणों को ।