Last modified on 27 अक्टूबर 2012, at 23:42

जब तुम आकाश में उमड़ते हुए उठोगे / कालिदास

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:42, 27 अक्टूबर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=कालिदास |संग्रह=मेघदूत / कालिद...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: कालिदास  » संग्रह: मेघदूत
»  जब तुम आकाश में उमड़ते हुए उठोगे

त्वामारूढं पवनपदवीमुद्गृहीतालकान्‍ता:
      प्रेक्षिष्‍यन्‍ते पथिकवनिता: प्रत्‍ययादाश्‍वसन्‍त्‍य:।
क: संनद्धे विरहविधुरां त्‍वय्युपेक्षेत जायां
      न स्‍यादन्‍योsप्‍यहमिव जनो य: पराधीनवृत्ति:।।

जब तुम आकाश में उमड़ते हुए उठोगे तो
प्रवासी पथिकों की स्त्रियाँ मुँह पर लटकते
हुए घुँघराले बालों को ऊपर फेंककर इस
आशा से तुम्‍हारी ओर टकटकी लगाएँगी
कि अब प्रियतम अवश्‍य आते होंगे।
तुम्‍हारे घुमड़ने पर कौन-सा जन विरह
में व्‍याकुल अपनी पत्‍नी के प्रति उदासीन
रह सकता है, यदि उसका जीवन मेरी तरह
पराधीन नहीं है?