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जब तुम आकाश में उमड़ते हुए उठोगे / कालिदास
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त्वामारूढं पवनपदवीमुद्गृहीतालकान्ता:
प्रेक्षिष्यन्ते पथिकवनिता: प्रत्ययादाश्वसन्त्य:।
क: संनद्धे विरहविधुरां त्वय्युपेक्षेत जायां
न स्यादन्योsप्यहमिव जनो य: पराधीनवृत्ति:।।
जब तुम आकाश में उमड़ते हुए उठोगे तो
प्रवासी पथिकों की स्त्रियाँ मुँह पर लटकते
हुए घुँघराले बालों को ऊपर फेंककर इस
आशा से तुम्हारी ओर टकटकी लगाएँगी
कि अब प्रियतम अवश्य आते होंगे।
तुम्हारे घुमड़ने पर कौन-सा जन विरह
में व्याकुल अपनी पत्नी के प्रति उदासीन
रह सकता है, यदि उसका जीवन मेरी तरह
पराधीन नहीं है?