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देहरी / पवन करण
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देहरी चाहती रही
रहे घर की बात घर में ही,
सिर्फ चाहने से
क्या होता है लेकिन
कोई और विपदा
घर तक न आए देहरी सोचती
हर सोचा हुआ,
हुआ हे, कभी पूरा
सुख जो एक बार भीतर घुसे
तो कभी बाहर न निकले
देहरी कहती,
कहते-कहते
हो गई वह बूढ़ी
देहरी घर में घुसते ही
चूमती हमारे क़दम
निकलते ही तलुओं में
फुसफुसाती जल्दी लौटना