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भावी / सूरदास

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करी गोपाल की सब होइ । जो अपनौ पुरुषारथ मानत, अति झूठौ है सोइ ।

साधन, मंत्र, जंत्र, उद्यम, बल, ये सब डारौ धोइ ।

जो कछु लिखि राखी नँदनंदन, मेटि सकै नहिं कोइ ।

दुख-सुख, लाभ-अलाभ समुझि तुम, कतहिं मरत हौ रोइ ।

सूरदास स्वामी करुनामय, स्याम-चरन मन पोइ ॥1॥


होत सो जो रघुनाथ ठटै ।

पचि-पचि रहैं सिद्ध, साधक, मुनि , तऊ न बढ़ै-घटै ।

जोगी जोग धरत मन अपनैं अपनैं सिर पर राखि जटै ।

ध्यान धरत महादेवऽरु ब्रह्मा, तिनहूँ पै न छटै ।

जती, सती, तापस आराधैं, चारौं बेद रटै ।

सूरदास भगवंत-भजन बिनु, करम-फाँस न कटै ॥2॥


भावी काहू सौं न टरे ।

कहँ वह राहु, कहाँ वै रवि ससि, आनि सँयोग परै ।

मुनि बसिष्ट पंडित अति ज्ञानी, रचि-पचि लगन धरै ।

तात-मरन, सिय हरन, राम बन-बपुधरि बिपति भरै ।

रावन जीति कोटि तैंतीसौ, त्रिभुवन राज करै ।

मृत्युहिं बाँधि कूप मैं राखै, भावी-बस सो मरै ।

अरजुन के हरि हुते सारथी, सोऊ बन निकरै ।

द्रुपद-सुता कौ राजसभा, दुस्सासन चीर हरै ।

हरीचंद सो को जगदाता, सो घर नीच भरै ।

जौ गृह छाँड़ि देस बहु धावै, तउ सग फिरै ।

भावी कैं बस तीन लोक हैं, सुर नर देह धरै ।

सूरदास प्रभु रची सु ह्वै है, को करि सोच मरै ॥3॥


तातैं सेइयै श्री जदुराइ ।

संपति बिपति, बिपतितैं संपति, देह कौ यहै सुभाइ ।

तरुवर फूलै, फरै, पतझरै, अपने कालहिं पाइ ।

सरवर नीर भरै भरि, उमड़ै सूखै खेह उड़ाइ ।

दुतिया चंद बढ़त ही बाढ़े , घटत-घटत घटि जाइ ।

सूरदास संपदा-आपदा, जिनि कोऊ पतिआइ ॥4॥