नदी की लहरो !
मैं नहीं बन पाई मात्र एक लहर
नहीं तिरोहित किया मैंने अपना अस्तित्व नदी में
तुम्हारे जैसा पाणिग्रहण नहीं निभा पाई मैं
इसलिए क्षमा माँगनी है तुमसे ।
वृक्षो ! तुमसे नहीं सीख पाई दाता का जीवन
तुम्हारे फल, छाया और पराग देने के पाठ नहीं उतार पाई जीवन में
मेरी आशाओं के भीगे पटल पर धूमिल पड़ते तुम्हारे सबकों से क्षमा माँगनी है मुझे ।
सूरज को पस्त करके लौटी गुलाबी शामो !
तुम्हें गुमराह करके
अपने डर के काले लबादों में ढक कर तुम्हें काली रातों में बदलने के ज़ुर्म में
क्षमा माँगनी है तुमसे ।
क्षमा माँगनी है कविता के उन ख़ामोश अंतरालों से
जो शब्दों के आधिपत्य में खो गए
उन चुप्पियों से
जो इतिहास के नेपथ्य में खड़ी रहीं बिना दखलंदाज़ी के
उन यायावरी असफलताओं से जिन्होंने समझौते की ज़मीनों पर नहीं बनाए घर ।
उस बेबाक लड़की से क्षमा माँगनी है मुझे जो मुस्कुराते हुए चलती है सड़क पर
जो बेख़ौफ़ उस लड़के की पीठ को राइटिंग पैड बना काग़ज़ रख कर लिख रही है शायद कोई एप्लीकेशन
जो बस में खो गई है अपने प्रेमी की आँखों में
जिसने उँगलियाँ फँसा ली है लड़के की उँगलियों में
ऐसी लड़कियों के साहस से क्षमा माँगनी है मुझे ।
जिनकी निष्ठा बौनी पड़ती रही नैतिकता के सामने
जो आधी औरतें आधी किला बन कर जीती रहीं तमाम उम्र
जिन्हें अर्धांगिनी स्वीकार नहीं कर पाए हम
जिनके पुरुष नहीं बजा पाए उनके नाम की डुगडुगी
उन दूसरी औरतो से क्षमा माँगनी है मुझे ।
मुझे क्षमा माँगनी है
आकाश में उड़ती कतारों के अलग पड़े पंछी से
आकाश का एक कोना उससे छीनने के लिए
उस पर अपना नाम लिखने के लिए
उसके दुःख में अपनी सूखी आँखों के निष्ठुर चरित्र के लिए ।
रौंदे गए अपने ही टुकड़ों से
अनुपयोगी हो चुके रद्दी में बिके सामान से,
छूटे और छोड़े हुए रिश्तों से अपने स्वार्थ के लिए क्षमा माँगनी है मुझे ।
नहीं बन पाई सिर्फ़ एक भार्या, जाया और सिर्फ़ एक प्रेयसी
नहीं कर पाई जीवन में बस एक बार प्यार
इसलिए क्षमा माँगनी है मुझे तुमसे
तुम्हारी मर्यादाओं का तिरस्कार करने के लिए .
घर की देहरी छोड़ते वक़्त तुम्हारी आँखों की घृणा को अनदेखा करने के लिए
तुम्हारे मौन को मौन समझने की भूल करने के लिए
मुझे क्षमा माँगनी है तुमसे !