Last modified on 17 नवम्बर 2012, at 21:03

किस मुअत्तर शय को छू आई हवा / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

Tanvir Qazee (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:03, 17 नवम्बर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला' |संग्रह=अंग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

किस मुअत्तर शै को छू आयी हवा
इस क़दर पहले कहाँ महकी हवा

अपनी ही मर्ज़ी से है ठहरी हुई
कब चराग़ों का कहा मानी हवा

थी बहुत पानी बरसने की उमीद
बादलों को ले उड़ी बाग़ी हवा

हम फ़क़ीरों को बस इतना है बहुत
अन्न थोड़ा, थोड़ा जल, थोड़ी हवा

अपने अपनों को नहीं पहचानते
चल पड़ी है आजकल कैसी हवा

अब्र किसके दुख में रोया रात भर
किसके दुख में रात भर सिसकी हवा

बात सीधे मुंह नहीं करता कोई
गाँव भर को लग गयी शहरी हवा

ऐ ‘अकेला’ किस तरह मुमकिन है ये
लू के मौसम में चले ठंड़ी हवा