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तबतें बहुरि न कोऊ आयौ / सूरदास

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राग मलार


तबतें बहुरि न कोऊ आयौ।

वहै जु एक बेर ऊधो सों कछुक संदेसों पायौ॥

छिन-छिन सुरति करत जदुपति की परत न मन समुझायौ।

गोकुलनाथ हमारे हित लगि द्वै आखर न पठायौ॥

यहै बिचार करहु धौं सजनी इतौ गहरू क्यों लायौ।

सूर, स्याम अब बेगि मिलौ किन मेघनि अंबर छायौ॥


शब्दार्थ :- द्वै आखर = दो अक्षर, छोटी-सी चिट्ठी। गहरू =विलंब। किन =क्यों नहीं।


भावार्थ :- परत न मन समुजायो,' मन समझाने से भी नहीं समझता। `अब बेगि... छायौ,' घनघोर घटाएं घिर आई है। यह संकेत किया गया है कि कहीं इन्द्र तब का बदला न चुका बैठे। ब्रज को, कौन जाने, अबकी बार डुबा कर ही छोड़े।इसलिए गोवर्द्धनधारी, ये काली-काली घटनाएं देखकर तो, ब्रज को बचाने के लिए आ जाओ।