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बूँद-बूँद चुक रहा तेल है / विमल राजस्थानी

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(एक सुपरिचित की मृत्यु-सूचना से प्रेरित होकर)

चले जा रहे एक-एक कर सभी मुसाफिर बारी-बारी
तू भी खड़ा पंक्ति में मन रे ! कर ले चलने की तैयारी
ऋतु आती है, ऋतु जाती है
खिले फूल को झरना ही है
चुक जायेगा स्नहे, दीप को-
तो निर्वापित करना ही है
आँखों से ओझल नक्षत्रों पर जीवित आलोक प्रखर है
शव को भस्म बनाने वाली अजर-अमर केवल चिनगारी
मर-मेघ बरसेगा, मिट्टी की-
प्रतिमा को गलना होगा
जितनी बड़ी वर्तिका, उतनी-
देर दीप को जलना होगा
बूँद-बूँद चुक रहा तेल है, तिल-तिल कर जलती है बाती
महाकाल की एक फूँक शत-शत झंझाओ से भी भारी
जिया परायों की खातिर तो-
तेरा जीना बहुत बड़ा है
शव जलने से पहले लपटों-
ने स्वर्णिम इतिहास गढ़ा है
लिया-लिया ही नहीं, दिया भी तुमने धरती वालों को
सच पूछो तो तुमने हासिल कर लीं जग की निधियाँ सारी
कोई एक शक्ति निश्चय जो-
जगा रही है, सुला रही है
बूँद-बूँद को महासिन्धु की-
लहरें प्रतिपल बुला रही हैं
पद्मासन पर बैठ, हृदय को मझधारों के बीच डाल दे
ठोकर मार ढाह दे पहले यह माया के महल, अटारी