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ओ मरण ! मरेगा कब तू / विमल राजस्थानी

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ओ मरण ! मरेगा कब तू ?
शैशव, कैशोर्य, जवानी, कह, जरा वरेगा कब तू ?
ओ मरण ! मरेगा कब तू ?
वह कौन क्रुर जिसने-
तुझको है भेजा
जन-जन की आँखों का-
क्यों सिन्धु सहेजा
तूने तो कई ‘ईश्वरों’ को भी मारा
धरती पर तुझसे बड़ा कौन हत्यारा
ओ कायर ! लुक-छिप कर क्यों प्राण चुराता
हम दुखी जनों-सा कह, कहरेगा कब तू
ओ मरण ! मरेगा कब तू ?
रे कुटिल ! नहीं फटती क्यों तेरी छाती
लिपि-शून्य कर रहा क्यों ‘माँगो’ की पाती
उफ ! रक्त समझ सिन्दूर पी रहा क्यों है
युग-युग से हर कर प्राण, जी रहा क्यों है
शिशु, तरूण, किशोर, वृद्ध, किसको है छोड़ा
झटके से साँसों के तारों को तोड़ा
वह तरूण पड़ा निष्प्राण, रूदन रोता है
सिर धुनती ममता, हृदय चूर्ण होता है
ओ छली, निर्दयी, क्रुर, दुष्ट, हत्यारे !
आहों से टकराकर बिखरेगा कब तू
ओ मरण ! मरेगा कब तू ?
जिस दिन तेरी अर्थी जग से निकलेगी
जिस दिन धू-धूकर तेरी चिता जलेगी
उस दिन संसार स्वर्ग बनकर झूमेगा
शाश्वत, अनन्त आनन्द हृदय चूमेगा
रे ! चिर वियोग का नाग न डँस पायेगा
पापों का दुर्ग स्वतः ढह, बह जायेगा
हम अमरों के इस अमर भुवन में दर-दर
नतमस्तक प्रेत बना विहरेगा कब तू
ओ मरण ! मरेगा कब तू ?