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अच्छा लगता है / विमल राजस्थानी

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दिन भर खट कर रात में सोना अच्छा लगता है
मा के हाथों बिछा बिछौना अच्छा लगता है
जिसने भी बंदूक बनायी उसका भला न हो
जंगल में चरता मृग-छौना अच्छा लगता है
भले बुढ़ापे में मत पूछे, ‘पायल’ ही पूजे
कंधों बैठा हुआ खिलौना अच्छा लगता है
घुटनों का छिल जाना, घोड़ा बनना, क्या दिन थे !
नन्हें घुड़सवार को ढोना अच्छा लगता है
चाँदी की थाली, सोने की चम्मच तुम्हीं रखो
संतोषी को पात को दोना अच्छा लगता है
कुर्सी पर लो तुम्हीं बिराजो, जाजिम मुझे भली
मुझको तो महफिल का कोना अच्छा लगता है
नमी जहाँ हो, बीज डाल दो, पौधा होगा ही
मुझ को मरू में आँसू बोना अच्छा लगता है
तुम अपने को ढूँढो जग की भूल-भुलैया में
मुझको तो बस खुद को खोना अच्छा लगता है
तुम्हें पराये लगते होंगे ये दुनियाँ वाले
मुझे न इक का, सबका होना अच्छा लगता है
तुम कन्नी काटो बूढ़ो से मुँह बिचका-बिचका
मुझको उनकी सुई पिरोना अच्छा लगता है
चाहे जितना नालायक हो, घर बर्बाद करे
फिर भी मा को ‘पूतमरौना’ अच्छा लगता है