भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रे मन मूरख, जनम गँवायौ / सूरदास

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:19, 9 अक्टूबर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूरदास }} राग धनाश्री रे मन मूरख, जनम गँवायौ।<br> करि अभ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग धनाश्री


रे मन मूरख, जनम गँवायौ।
करि अभिमान विषय-रस गीध्यौ, स्याम सरन नहिं आयौ॥
यह संसार सुवा-सेमर ज्यौं, सुन्दर देखि लुभायौ।
चाखन लाग्यौ रुई गई उडि़, हाथ कछू नहिं आयौ॥
कहा होत अब के पछिताऐं, पहिलैं पाप कमायौ।
कहत सूर भगवंत भजन बिनु, सिर धुनि-धुनि पछितायौ॥

विषय रस में जीवन बिताने पर अंत समय में जीव को बहुत पश्चाताप होता है। इसी का विवरण इस पद के माध्यम से किया गया है। सूरदास कहते हैं - अरे मूर्ख मन! तूने जीवन खो दिया। अभिमान करके विषय-सुखों में लिप्त रहा, श्यामसुन्दर की शरण में नहीं आया। तोते के समान इस संसाररूपी सेमर वृक्ष के फल को सुन्दर देखकर उस पर लुब्ध हो गया। परन्तु जब स्वाद लेने चला, तब रुई उड़ गयी (भोगों की नि:सारता प्रकट हो गयी,) तेरे हाथ कुछ भी (शान्ति, सुख, संतोष) नहीं लगा। अब पश्चाताप करने से क्या होता है, पहले तो पाप कमाया (पापकर्म किया) है। सूरदास जी कहते हैं- भगवान् का भजन न करने से सिर पीट-पीटकर (भली प्रकार) पश्चात्ताप करता है।