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सूखी रोटी पर नमक धरो / विमल राजस्थानी

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‘छब्बीस जनवरी’, महामहिम ‘गणतंत्र दिवस’ की यादगार
या दबे-पिसे पचपन करोड़ जन-गण की छाती पर प्रहार ?
उत्सव, उल्लास, समारोहों की भीड़, घिसी-सी धूम-धाम
या ‘स्वतंत्रता-सीता’ का हरण हुआ, हर्षित, उल्लसित ‘राम’ ?
‘गाँधी’ पुस्तक में कैद, मुक्त फिरते हैं रावण गली-गली
बाईस वर्ष हो गये कि जब भारत मा की तस्वीर जली
परिवार विभाजित हुए, टूट टुकड़े-टुकड़े हो गया देश
धोखा, फरेब, पद-लोलुपता, धन की लिप्सा रह गयी शेष
सूखी रोटी पर नमक भी न, लेकिन कुत्ते पय पीते हैं
मुट्ठी भर धनी करोड़ों का लोहू पी-पीकर जीते हैं
धर-पकड़ विधान-सभाओं में, संसद में जूते चलते हैं
ये मुसटंडे ‘काले गिरगिट’ पल-पल पर रंग बदलते हैं
लानत ऐसी आजादी पर, थू ऐसे डगमग शासन पर
बरपा हो कहर वज्र टूटे इस शासन के दुःशासन पर
जनता शिक्षा से दूर रहे, अपने ही गम में चूर रहे
चूसे जाने का हो न भान, ओठों पर सदा ‘हुजूर’ रहे
इन बच्चों के कंधों पर पुस्तक का पहाड़ लादते रहो
ओ छल-छद्मियों ! वंचको ! तुम उल्लू अपना साधते रहो
पर रोक सकोगे ‘नक्सलबाड़ी’ की पुनरावृत्तियाँ नहीं
आखिर भगवान कहीं तो हैं, पापों का भी है अंत कहीं
धीरे-धीरे है सुलग रही जन-जन के मन में एक आग
धीरे-धीरे फन तान रहे तलवों के नीचे दबे नाग
दिन दूर नहीं, विकराल लाल ये लपटें तुम्हें लपेटेंगीं
यह क्रुद्ध सर्पणी-सी जनता कुंडलि में तुम्हें समेटेगी
है वक्त अभी, सूखी रोटी पर नमक धरो, नीचे आओ
मत जलने दो स्वदेश, मत बनने दो तुम जन-जन को ‘माओ’