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सोचो तो / गोरख पाण्डेय

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बिल्कुल मामूली चीज़ें हैं
आग और पानी
मगर सोचो तो कितना
अजीब होता है
होना
आग और पानी का
जो विरोधी हैं फिर भी
मिलकर पहियों को गति देती हैं

मगर सोचो तो अन्धेरे में
चमकते ये हज़ारों हाथ हैं
इतिहास के पहियों को
आगे की ओर ठेलते हुए
इतिहास की क़िताबों में
इनका ज़िक्र न होना भी
सोचो तो कितना अजीब है

ऐसे ही
जो अनाज पैदा करते हैं
उन्हें भरपेट रोटी मिलनी चाहिए
जो कपड़े बुनते हैं
उनके पास कपड़े ज़रूर होने चाहिए
और प्यार उन्हें ज़रूर मिलना चाहिए
जो प्यार करते हैं
मगर सोचो तो कितना अजीब है
कि अनाज पैदा करने वालों को
दो जून रोटी नहीं मिलती
और अनाज पचा जाते हैं चूहे
और बिस्तरों पर पड़े रहने वाले लोग
बुनकर फटे चिथड़ों में रहते हैं
और सबसे अच्छे कपड़े प्लास्टिक की
मूर्त्तियाँ पहने होती हैं
ग़रीबी में प्यार भी नफ़रत करता है
जबकि पैसा
नफ़रत को भी प्यार में बदल देता है

सोचो तो सोचने को बहुत कुछ है
मगर सोचो तो यह भी कितना अजीब है
कि हम सोच सकते हैं
मसलन हम सोच सकते है कि
अगर कल-कारख़ाने मज़दूरों के ही
हाथ से चलते हैं
तो मज़दूरों को ही उनका मालिक
होना चाहिए
खेतों के मालिक खेत जोतने वाले
ही होने चाहिए
और पानी, ख़ून पीकर जीने वाली
जोकों के बिना भी बहता रह सकता है
आग झोपड़ों को जलाने के लिए
नहीं, बल्कि
ठण्ड से काँपते लोगों को गर्मी
पहुँचाने के लिए हो सकती है

सोचो तो सिर्फ़ सोचने से
कुछ नहीं होने जाने का
और करने को पड़े हैं ढेर सारे काम
मगर सोचो तो कितना अजीब है
कि बग़ैर सोचे भी
कुछ होने जाने का नहीं
जबकि
होते हो इसलिए सोचते हो ।