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शब्दों में सतयुग की ख़ुशबू / महेश अनघ
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नहीं, पेट में नहीं किसी के कस्तूरी
दंतकथा सुनकर, हिरना मदमाते हैं ।
विश्वामित्र, वशिष्ठ पहिनकर
चोला चोखा है
शब्दों में सतयुग की ख़ुशबू
समझो धोखा है
नागलोक है जीभ देहरी के भीतर
बाहर बन्दनवार ज़रूर सजाते हैं ।
किन्तु-परन्तु साथ रखती
वाणी मंगलवारी
लोहा कभी नहीं छूते हैं ये पारसधारी
कल्पवृक्ष कच्चे धागे में कैद किया
अंगूरी पीते अमरौती खाते हैं ।
अनहद-अंतर्नाद कुछ नहीं
म्यूजिक सिस्टम है
मंच विडियो है तब तक
कुण्डलिनी में दम है
ले दे कर इज़्ज़त जो है सो बनी हुई
परिचय में पहले पदनाम बताते हैं ।