जखन लेल हरि कंचुअ अचोडि
कत परि जुगुति कयलि अंग मोहि।।
तखनुक कहिनी कहल न जाय।
लाजे सुमुखि धनि रसलि लजाय।।
कर न मिझाय दूर दीप।
लाजे न मरय नारि कठजीव।।
अंकम कठिन सहय के पार।
कोमल हृदय उखडि गेल हार।।
भनह विद्यापति तखनुक झन।
कओन कहय सखि होयत बिहान।।
भावार्थ : - जब भगवान कृष्ण (हरि) ने कंचुकी (वस्र) बाहर कर दिया तब मैंने अपने शरीर की लाज बचाने के लिए क्या-क्या यत्न नहीं किए। उस समय की बात का क्या जिक्र कर्रूँ, मैं तो लाज (शर्म) से सिकुड़ गई अर्थात् लाज से पाठ (लकड़ी) के समान कठोर हो गई। जलता दिपक कुछ दूरी पर था, जिसे मैं हाथ से बुझा नहीं सकी। नारी कठ जीव (लकड़ी के समान) होती है, वह लाज से कदापि मर नही सकती। कठोर आलिंगन को कौन बर्दाश्त करे, इसलिए कोमल हृदय पर हार का दाग पड़ गया। महाकवि विद्यापति उस समय का रहस्य बताते है कि कोई भी यह नहीं कह रहा था कि आज भोर (प्रात:) होगी अर्थात् रात में तो सखी, ऐसा लग रहा था, जैसे सुबह होगी ही नहीं।