भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इक्कीसवीं सदी का आम आदमी-2 / लीलाधर जगूड़ी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:33, 30 दिसम्बर 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार = लीलाधर जगूड़ी }} {{KKCatKavita}} <poem> ग़रीब ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
ग़रीब को मिली है परधानी
कार्यकर्ता जुटे हैं पायलागन में
बजट के बिना यह तो सिर्फ़ सपना हुआ
आमदनी बढ़े तो समझो विकास हुआ
परधान कुछ दे न सके अपनों को
समाज-सेवा क्या यह तो माला जपना हुआ
पहले जो मुद्रा बताई गई थी भ्रष्टाचार की
वह ऊपर से नीचे की ओर बताई गई थी
जो कि पूरी तरह अधोगामी हो गया है
इक्कीसवीं सदी का आम आदमी
भ्रष्टाचार में अपना हिस्सा माँग रहा है
परसों भारत माता क्यों रोई ?
कितनी दूर बिना ईंधन चल पाएगा कोई?
हर कोई लोकतंत्र में अपना हिस्सा माँग रहा है ।।