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अनुनाद / कुमार अनुपम
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एक रात ज्ञात होता है लौटते हुए कि सुरक्षित है अभी एक शरीर की याद और भीतर की थकान में इन्द्रियों के अलावा शरीक़ हैं कुछ स्वप्न भी जो पछाड़ खाए हुए घोड़ों की तरह (एक विदेशी तस्वीर की) हवा में अगली टाँगें लहराते हैं मात्र पीड़ा में पिछली टाँगें किसी पथराई उम्मीद पर दर्ज़ करती हैं खरोंच जो चमकती है ब्लेड की धार की तरह और गुज़र गई किसी नदी की असफल खोज में कसकती है नई एकदम चुप्पी बहती है लहू की जगह नसों में अनुनाद उत्पन्न करती हुई झिंझोड़ती अस्तित्व एक आदिम चुनौती देती हुई हो जाती है अपस्थानिक जड़ और वर्तमान से भविष्य में चटखती है अंततः घुप्प नीले आसमान में कटा हुआ नाखून-सा पड़ा हुआ तीज का चाँद घास में धीरे-धीरे तब्दील होता है।