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औरतें कविताएँ नहीं पढ़तीं / किरण अग्रवाल
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औरतें साहित्यिक पत्रिकाएँ नहीं पढ़तीं
वे मनोरमा पढ़ती हैं
पढ़ती हैं वे गृहशोभा, मेरी सहेली और वनिता
पुरुष को वश में करने के नुस्खे तलाशती हैं वे
और बुनाई की नई-नई डिजाइनें
रेसिपी नए-नए व्यंजनों की
कुछ आधुनिक औरतें फेमिना पढ़ती हैं
और डिबोनेयर
देखती हैं स्त्री-देह को परोसा हुआ बाज़ार में
और अपनी देह को स्थानान्तरित कर लेती हैं वहाँ
औरतें कविताएँ नहीं पढ़तीं
लेकिन लिखती हैं
और गाड़ देती हैं अँधेरे तहख़ानों में
भूल जाने के लिए
जहाँ से युगों के बाद
कोई पुरातत्त्ववेत्ता
खोद कर निकालता है एक पूरी सभ्यता
औरतें इतिहास रचती हैं
और खाली छोड़ देती हैं अपने नाम की जगह