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धुँआ (9) / हरबिन्दर सिंह गिल

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जब पड़ता है, कोहरा इस धुएँ का
कोई रास्ता नहीं दिखाई देता
सब खो कर रह जाता है
जीवन की राह में, पथभ्रष्ट होकर ।

आत्मा की रोशनी भी
रह जाती है, मंद पड़कर
और छोड़ देती है, साथ मनुष्य का
क्योंकि, उसने कर दी थी अनसुनी
आवाज अपनी ही आत्मा की
जब था उजाला राहों पर ।

समय बहुत था, संभलने का
समझाने का और मनाने का
अपने ही मंसूबों में
कैसे लगा सकूँ , दाव पर मानवता
धर्म के नाम पर ।

इससे अच्छा समय क्या होगा
ऐसे दावों को अजमाने का
जब फैला हुआ हो चारों तरफ
कोहरा ही कोहरा, इस धुएँ का ।