भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धुँआ (9) / हरबिन्दर सिंह गिल
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:26, 7 फ़रवरी 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरबिन्दर सिंह गिल |संग्रह=धुँआ / ह...' के साथ नया पन्ना बनाया)
जब पड़ता है, कोहरा इस धुएँ का
कोई रास्ता नहीं दिखाई देता
सब खो कर रह जाता है
जीवन की राह में, पथभ्रष्ट होकर ।
आत्मा की रोशनी भी
रह जाती है, मंद पड़कर
और छोड़ देती है, साथ मनुष्य का
क्योंकि, उसने कर दी थी अनसुनी
आवाज अपनी ही आत्मा की
जब था उजाला राहों पर ।
समय बहुत था, संभलने का
समझाने का और मनाने का
अपने ही मंसूबों में
कैसे लगा सकूँ , दाव पर मानवता
धर्म के नाम पर ।
इससे अच्छा समय क्या होगा
ऐसे दावों को अजमाने का
जब फैला हुआ हो चारों तरफ
कोहरा ही कोहरा, इस धुएँ का ।