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धुँआ (19) / हरबिन्दर सिंह गिल

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यह धुआं कलंक है
हाँ, इतना आसान नहीं है
इतना बड़ा आरोप लगा देना ।

इसके शिष्य मान इसे धर्म युद्ध या जिहाद
इस काले धुएं को
रंग देना चाहते हैं
खून के रंग से
और चल पड़े है, गीत गाते वीरता के
एक अन्जान रण-भूमि की ओर ।

यह रण भूमि कोई मैदान नहीं
वो तो गली-कूचों में बने पूजास्थल हैं
जिन्हें कर नष्ट हाथों से,
वही हाथ जिसमें पकड़ते है धर्म-ग्रंथ
मनाते हैं, खुशियाँ जीत की
फहराते हैं, पताका अपने धर्म चिन्ह की ।

परंतु पताकों पर नहीं दिखाई देते
धब्बे उन बेकसूर मनुष्यों के खून के
जो निसंदेह हैं, कलंक के ।