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धुँआ (22) / हरबिन्दर सिंह गिल
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इस धुऐं के स्थान पर
आंधी क्यों नहीं आ जाती
जो झकझोर दे, मनुष्य के मस्तिष्क को
मस्तिष्क जिसमें चली जा रही है
चालें शतरंज की
और लगी है दाव पर मानवता ।
इस धुऐं के स्थान पर
तूफान क्यों नही आ जाता
जो टुकड़े-टुकड़े कर दे
मनुष्य के हृदय को ।
हृदय जिसमें बह रही है, मानवता
सिर्फ स्वयं के लिए
ओर है पत्थर वही दिल
अपनी मां-मानवता के लिए ।