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धुँआ (23) / हरबिन्दर सिंह गिल

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इस धुऐं के स्थान पर
भूचाल क्यों नहीं आ जाता
जो रौंद डाले
मनुष्य की आत्मा को ।

आत्मा जिसकी आवाज दब चुकी है
इस दुनिया के शोर में
और न सुन सके कराह, अपनी माँ की ।


ओ मानव ले आओ, आंधी क्रांति की
और तूफान निश्चय का
भूचाल अपने सार्थक विचारों का
तकि रौंद सके, हर उस व्यक्ति को
जो जन्म देते हैं, इस धुऐं को ।

इस धुऐं के बादलों में
एक अनूठा वातावरण है
सन्नाटे और चीख के बीच
अपनी ही आंख मिचौली है ।

मगर क्या पता इस वातावरण को
यह आंख मिचौली
बच्चों का खेल बनकर रह गया है
बड़े बनने के लिए
मानवता की आंख पर पट्टी है
और मानव उससे खेल रहा है ।


हाँ, अगर मानव की जगह
बच्चे होते, तो मंजूर था
सोचकर यह कि माँ
बच्चों का दिल बहला रही है
खेल-खेल में
जीवन की राह दिखा रही है ।

परंतु इस धुऐं की
आंख मिचौली में
तो बच्चे पिस रहे हैं
बे-मौत मर रहे हैं
जीकर भी अधमरे हैं
क्योंकि सन्नाटे और चीख की
इस आंख मिचौली में
पट्टी बंधी हुई है
इन्सानियत की आंखों पर ।

जब कोई मानव भौंकता है कटार उसमें
चीख ही चीख सुनाई देती है
जैसे बिजली आसमान फाड़ रही है
और फिर हो जाता है
सन्नाटा चारों तरफ ।

इस धुऐं के बादलों में
एक अनूठा वातावरण है
सन्नाटे और चीख के बीच ।