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धुँआ (25) / हरबिन्दर सिंह गिल

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यह धुआं सिर्फ कल्पना नहीं है
न ही कविता की पंक्तियां
न ही व्यक्तिगत उपदेश
और न ही कोई राय
ये तो एक वास्तविकता है ।

क्या मैं इस वास्तविकता से
अपने आपको मारकर इससे समझौता कर लूँ ।

नही, मै क्यो करूँ
हिंदू होकर नफरत एक मुसलमान से
क्या जाने अगले जन्म में
काशी के स्थल पर हो दीदार-ए-मदिना ।

नही, मैं क्यो करूँ
सिक्ख होकर दुआ एक ईसाई से
क्या जाने अगले जन्म में
कृपाण की जगह ले ले ये क्रास ।

नहीं, मैं क्यों करूँ
ईसाई होकर नफरत एक मुसलमान से
क्या जाने अगले जन्म में
क्रास की जगह चांद ले ले ।

नही, मै क्यो करूँ
मुसलमान होकर नफरत एक हिन्दू से
क्या जाने अगले जन्म में
मेरी मौत के बाद, दफनाने की जगह जलाया जाए मुझे ।

नही, मै क्यो करूँ
मानव होकर नफरत एक मानव से
क्या जाने आने वाले समय में
मानवता-मानव को जन्म देने से न कर दे इन्कार।