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अमर जवानी को प्रणाम है / विमल राजस्थानी

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समर-यज्ञ में जो प्राणों की, हँसकर आहुतियाँ देते हैं
मातृ-भूमि की रक्षा में जो जूझे रहे उनको प्रणाम है

नमन उन्हें जो दुश्मन की छाती-
को फाड़, लहू पीते हैं
नमन उन्हें जो बलि-वेदी-
पर चढ़, इतिहासों में जीते हैं

नमन उन्हें जिनने अपने सिर-
कफन देश के हित, बाँधा है
चिन्ता नहीं रंच ‘नन्हे-मुन्नों’ की
विस्मृत-सी ‘राधा’ है

आँसू नहीं, नयन से जिनके-
अग्नि-बाण छूटा करते हैं
मृत्युंजयी जो वीर वज्र बन
दुश्मन पर टूटा करते हैं

गज भर की छाती है जिनकी, हुंकृति सुन तारे टकरायें
उन अनगिन दधिचि-पुत्रों के चरणों में अनगिन प्रणाम हैं

छाती तान झेल लेते जो-
अग्नि-शिखाओं भरी दुनाली
जिनका रक्त दान बन जाता-
कोटि-कोटि माँगों की लाली

जो अपनों के हित न्यौछावर-
हो जाने में रस लेते हैं
पितृ-हीन कर अपने बच्चों-
को, जो हँसकर चल देते हैं

जिनकी सेज शिला की नोकें
जिनका खाद्य घास की रोटी
मातृभूमि पर न्यौछावर-
कर देते हैं बोटी-बोटी

नहीं जिन्हें पद-प्यास, न यश-लिप्सा, न अमर होने की इच्छा
उन निर्लिप्त जवाँमर्दों की अजर जवानी को प्रणाम है

जिनके दम पर युग-युग तक फूलेगी यह ‘केसर की क्यारी’
रहने वाली शेष महकती हुई कहानी को प्रणाम है