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निज़ामुद्दीन-11 / देवी प्रसाद मिश्र
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तू मुझे देखता है क्या कि मैं कुछ बम-सा हूँ ।
तू मुझे देखता है क्यों कि मैं कुछ कम-सा हूँ ।
मैं कहीं हूँ तो कभी हूँ तो कोई भी होकर,
इतना बहता है पसीना तो मैं कुछ नम-सा हूँ ।
वो जो है इत्मिनान और सुकूँ और तराश मैं हूँ,
क्यों इतना अचानक कि मैं कुछ धम-सा हूँ ।
मुझको वो फ़िक्र नहीं क्योंकि मेरा ज़िक्र नहीं,
इतना पीकर भी कहूँ क्योंकि मैं कुछ खम-सा हूँ ।
अब तो ये वक़्त है कि वक़्त कुछ बचा भी नहीं,
मैं अकेला ही सोचता हूँ कि मैं कुछ हम-सा हूँ ।
मैं भी देखा किया दरगाह में बैठे-बैठे,
मैं किसी कोने में उखड़ा हुआ बे-दम-सा हूँ ।