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फ़्रेंच सिनेमा / देवी प्रसाद मिश्र

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(लगे हाथ नग्नता पर एक फ़ौरी विमर्श)

ख़ान मार्केट के पास जहाँ कब्रिस्तान है
वहां बस रुकती नहीं है - मैं चलती बस से
उतरा और मरते-मरते बचा : यह फ़्रेंच फ़िल्म का कोई
दृश्य होता जिनकी डी० वी० डी० लेने मैं
क़रीब क़रीब हर हफ़्ते उसी तरफ़ जाया करता हूँ

यह हिन्दी फ़िल्मों का कोई दृश्य शायद ही हो पाता क्योंकि
इन फ़िल्मों का नायक अमूमन कार में चलता है
और बिना आत्मा के शरीर में बना रहता है वह देश में भी
इसी तरह बहुत ग़ैरज़िम्मेदार तरीक़े से घूमता रहता है
वह विदेशियों की तरह टहलता है और सत्तर करोड़ की फ़िल्म में
हर दो मिनट में कपड़े बदलता है और अहमक पूरी फ़िल्म में
पेशाब नहीं करता है और अपने कपड़ों से नायिका के कपड़ों को इस तरह से
रगड़ता है कि जैसे वह संततियाँ नहीं विमल सूटिंग के थान पैदा करेगा

मतलब यह कि इन फ़िल्मों में बिना हल्ला मचाए निर्वस्त्र हुआ नहीं जाता
इन फ़िल्मों में सत्ता को नंगा नहीं किया जाता
जो कलाओं की दो बुनियादी वैधताएँ हैं