Last modified on 26 फ़रवरी 2013, at 07:30

कहते हैं लोग शहर तो ये भी ख़ुदा का है / 'असअद' बदायुनी

आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:30, 26 फ़रवरी 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='असअद' बदायुनी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> क...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कहते हैं लोग शहर तो ये भी ख़ुदा का है
मंज़र यहाँ तमाम मगर करबला का है

आते हैं बर्ग ओ बार दरख़्तों के जिस्म पर
तुम भी उठाओ हाथ के मौसम दुआ का है

ग़ैरों को क्या पड़ी है के रुसवा करें मुझे
इन साज़िशों में हाथ किसी आश्ना का है

अब हम विसाल-ए-यार से बेज़ार हैं बहुत
दिल का झुकाव हिज्र की जानिब बला का है

ये क्या कहा के अहल-ए-जुनूँ अब नहीं रहे
‘असअद’ जो तेरे शहर में बंदा ख़ुदा का है