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मंज़िल तक हरगिज़ न पहुँचता / हस्तीमल 'हस्ती'
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मंज़िल तक हरगिज़ न पहुँचता
साथ न रहता गर ठोकर का ।
किसको लेता साथ सफ़र में
मैं ख़ुद अपने साथ नहीं था ।
इन्सानों की फ़ितरत में है
मेरा तेरा तेरा मेरा ।
इस युग की शम्में देती हैं
उजियारा अँधियारे जैसा ।
सच से जान बचाकर ‘हस्ती’
क़त्ल किया है मैंने मेरा ।