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बातें नई नहीं होती / दिनकर कुमार

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बातें नई नहीं होती अक्सर पता चलता है
पहले ही कही जा चुकी हैं ऐसी बातें
ऋग्वेद की प्रार्थना दोहराई जाती है
किसी सूफ़ी कवि की रचना में —
‘एकजुट हो जाओ, एक दूसरे से बातें करो
तुम्हारे विचारों में हो तालमेल
साझी हों तुम्हारी क्रियाएँ और उपलब्धियाँ
साझी हों तुम्हारे हृदय की आकाँक्षाएँ
इसी तरह कायम हो तुम्हारे बीच एकजुटता’

बातें नई नहीं होती अलग-अलग समय में
होती रहती है ऐसी बातों की पुनरावृत्ति
यातनाओं से मुक्ति पाने के लिए जब
बुद्ध कहते हैं विवेक जगाने के बारे में
जब उपनिषद बताते हैं विद्या से ही सम्भव
है मुक्ति तक इस तरह के विचार बन जाते हैं कालातीत

जनमानस में रचे-बसे हुए कालिदास
भारवी, बाणभट्ट की अनुभूतियाँ व्यक्त होती हैं
किसी नए कवि की रचना में समस्त धर्म-ग्रंथ के
विचार को पेश करते हुए गाते हैं कवि चंडीदास —
‘सवारो ऊपरे मानुष सत्य’
महाभारत करता है उद्घोष —
मनुष्य से बढ़कर कुछ भी नहीं है

तब पैदा होता है सवाल
इतना अधिक ज्ञान इतने सारे विचार
फिर भी क्यों है इतनी घृणा
इतना अंधविश्वास इतनी संकीर्णता
इतनी कुरीतियाँ, इतनी बर्बरता, इतने अत्याचार ।