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मुझे फिर से लुभाया / कीर्ति चौधरी

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खुले हुए आसमान के छोटे से टुकड़े ने,
मुझे फिर से लुभाया|
अरे! मेरे इस कातर भूले हुए मन को
मोहने,
कोई और नहीं आया
उसी खुले आसमान के टुकड़े ने मुझे
फिर से लुभाया|

दुख मेरा तब से कितना ही बड़ा हो
वह वज्र सा कठोर,
मेरी राह में अड़ा हो
पर उसको बिसराने का,
सुखी हो जाने का,
साधन तो वैसा ही
छोटा सहज है|

वही चिड़ियों का गाना
कजरारे मेघों का
नभ से ले धरती तक धूम मचाना
पौधों का अकस्मात उग आना
सूरज का पूरब में चढ़ना औ
पच्छिम में ढल जाना
जो प्रतिक्षण सुलभ,
मुझे उसी ने लुभाया

मेरे कातर भूले हुए मन के हित
कोई और नहीं आया

दुख मेरा भले ही कठिन हो
पर सुख भी तो उतना ही सहज है

मुझे कम नहीं दिया है
देने वाले ने
कृतज्ञ हूँ
मुझे उसके विधान पर अचरज है|