Last modified on 7 अप्रैल 2013, at 10:16

भावहीन चेहरों के जंगल में / दिनकर कुमार

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:16, 7 अप्रैल 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनकर कुमार |संग्रह=उसका रिश्ता ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

भावहीन चेहरों के जंगल में
विचारधाराओं की
भ्रूण-हत्या होती है

पशुओं के पास
कोई विचारधारा नहीं होती
लहू और माँस का सेवन कर
पशु तृप्ति के डकार लेते हैं

घिनौने अवसरों को झपटने के लिए
पाखण्ड रचा जाता है
बयान दिए जाते हैं
समितियाँ गठित होती हैं

अदृश्य नाख़ूनों से
सपनों के कोमल अंग
नोचे-खसोटे जाते हैं

रीढ़ गँवाने के बाद
सीधे होकर
लोग चल नहीं पाते

प्रस्तावों के कंकड़ फेंककर
सड़े हुए पानी के तालाब में
कोई हलचल पैदा नहीं की जा सकती

किसी खण्डहर की ईंट की तरह
आबादी
वीरानी का शोकगीत
सुनती रहती है ।