तुम्हें पाने की धुन इस दिल को यूँ अक्सर सताती है / पवन कुमार
तुम्हें पाने की धुन इस दिल को यूँ अक्सर सताती है
बंधी मुट्ठी में जैसे कोई तितली फड़फड़ाती है
चहक उठता है दिन और शाम नग्में गुनगुनाती है
तुम्हारे पास आता हूँ तो हर शय मुस्कुराती है
मुझे ये ज़िंदगी अपनी तरफ कुछ यूँ बुलाती है
किसी मेले में कुलफी जैसे बच्चों को लुभाती है
वही बेरंग सी सुब्हें वही बेकैफ सी शामें
मुझे तू मुस्तकिल ऐ जिन्दगी क्यूँ आजमाती है
कबीलों की रिवायत, बंदिशें, तफरीक नस्लों की
मुहब्बत इन झमेलों में पड़े तो हार जाती है
किसी मुश्किल में वो ताकत कहाँ जो रास्ता रोके
मैं जब घर से निकलता हूँ तो माँ टीका लगाती है
न जाने किस तरह का कजर् वाजिब था बुजुर्गों पर
हमारी नस्ल जिसकी आज तक किस्तें चुकाती है
हवाला दे के त्योहारों का रस्मों का रिवाजों का
अभी तक गांव की मिट्टी इशारों से बुलाती है
बेकैफ = आनन्द रहित, मुस्तकिल = दृढ़ता, तफरीक = भेदभाव