Last modified on 1 मई 2013, at 06:50

साँप को रस्सी समझ डरते रहे / नीरज गोस्वामी

द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:50, 1 मई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीरज गोस्वामी }} {{KKCatGhazal}} <poem> सांप, रस...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


सांप, रस्सी को समझ डरते रहे
और सारी ज़िन्दगी मरते रहे

खार जैसे रह गए हम डाल पर
आप फूलों की तरह झरते रहे

थाम लेंगे वो हमें ये था यकीं
इसलिए बेख़ौफ़ हो गिरते रहे

कौन हैं? क्यूँ है ?कहाँ जाना हमें?
इन सवालों पर सदा घिरते रहे

तिश्नगी बढ़ने लगी दरिया से जब
तब से शबनम पर ही लब धरते रहे

छांव में रहना था लगता क़ैद सा,
इसलिये हम धूप में फिरते रहे

रात भर आरी चलाई याद ने,
रात भर ख़़ामोश हम चिरते रहे

जिंदगी उनकी मज़े से कट गई
रंग ‘नीरज’ इसमें जो भरते रहे