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उतना तुम में विश्वास बढा / रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

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बाहर के आँधी पानी से मन का तूफ़ान कहीं बढ़ कर,
बाहर के सब आघातों से, मन का अवसान कहीं बढ़कर,
फिर भी मेरे मरते मन ने, तुम तक उड़ने की गति चाही,
तुमने अपनी लौ से मेरे सपनो की चंचलता दाही,
इस अनदेखी लौ ने मेरी बुझती पूजा मैं रूप गढ़ा,
जितनी तुमने व्याकुलता दी उतना तुम पर विश्वास बढ़ा.

प्राणों में उमड़ी थी कितने अनगाये गीतों की हलचल,
जो बह न सके थे वह आँसू भीतर भीतर ही तप्त विकल,
रुकते रुकते ही सीख गये थे सुधि के सुमिरन में बहना,
तुम जान सकोगे क्या न कभी मेरे अर्पित मन का सहना,
तुमने सब दिन असफलता दी मैंने उसमे वरदान पढ़ा,
जितनी तुमने व्याकुलता दी उतना तुम पर विश्वास बढ़ा.

मैंने चाहा तुम में लय हो साँसों के स्वर सा खो जाना,
मैं प्रतिक्षण तुममें ही बीतूँ हो पूर्ण समर्पण का बाना,
तुमने ना जाने क्या करके मुझको भंवरो में भरमाया,
मैंने अगणित मझधारों मैं तुमको साकार खड़े पाया,
भयकारी लहरों में भी तो तुम तक आने का चाव चढ़ा,
जितनी तुमने व्याकुलता दी उतना तुम पर विश्वास बढ़ा.


मेरे मन को आधार यही यह सब कुछ तुम ही देते हो,
दुःख मैं तन्मयता देकर सुख कि मदिरा हर लेते हो,
मैंने सारे अभिमान तजे लेकिन न तुम्हारा गर्व गया,
संचार तुम्हारी करुणा का मेरे मन में ही नित्य नया,
मैंने इतनी दूरी मैं भी तुम तक आने का स्वप्न गढ़ा,
जितनी तुमने व्याकुलता दी उतना तुम पर विश्वास बढ़ा.

आभास तुम्हारी महिमा का कर देता है पूजा मुश्किल,
परिपूर्ण तुम्हारी वत्सलता करती मन कि निष्ठा मुश्किल,
मैं सब कुछ तुममें हीं देखूँ सब कुछ तुममें ही हो अनुभव,
मेरा यह दुर्बल मन किन्तु कहाँ होने देता यह सुख संभव,
जितनी तन की धरती डूबी उतना मन का आकाश बढ़ा,
जितनी तुमने व्याकुलता दी उतना तुम पर विश्वास बढ़ा.