चित्तौड़ की एक शरद रजनी / ‘हरिऔध’
मयंक मृदु मंद हँस रहा था।
असीम नीले अमल गगन में।
सुधा अलौकिक बरस रहा था।
चमक रहा था छत्र-गन में।1।
सुरंजिता हो रही धारा थी।
खिली हुई चारु चाँदनी से।
रजत-मयी हो गयी बिभा थी।
कला कुमुदिनी-विकासिनी से।2।
दसों दिशा दिव्य हो गयी थीं।
सुदुग्धा का सोत बह रहा था।
नभपगा भी प्रभा-मयी थी।
प्रवाह पारद उमड़ रहा था।3।
चमक रहे थे असंख्य तारे।
सुदीप्ति सब ओर ढल रही थी।
विमुग्धा-कर ज्योति-पुंज धारे।
अपार आभा उथल रही थी।4।
सुअर्बली शैल के शिखर पर।
असंख्य हीरे ढलक रहे थे।
प्रकाश-मण्डित मयंक के कर।
अपार छबि से छलक रहे थे।5।
सुदूर विस्तृत विशाल गिरिवर।
सुज्योति संचित जगा रहा था।
अपूर्व कल-कान्ति-युक्त कलेवर।
रजत जटित जगमगा रहा था।6।
विचित्र तरु-पत्र की छटा थी।
प्रदीप्ति से दीप्तिमान होकर।
विराजती स्वच्छ शुभ्रता थी।
हरीतिमा का विकास खोकर।7।
प्रकाश के हैं कढ़े फुआरे।
प्रदीप्त भूतल विदार करके।
कि हैं प्रभा से गये सँवारे।
समस्त पादप प्रदेश भर के।8।
सुज्योति-सम्पन्न थीं लताएँ।
किरण-मयी बेलियाँ हुई थीं।
हरी भरी श्याम दूर्वाएँ।
प्रकाश से शुभ्र हो गयी थीं।9।
समस्त गिरि-शृंग का हिमोपल।
विचित्रता से दमक रहा था।
हरेक तृण था हुआ समुज्ज्वल।
समस्त रजकण चमक रहा था।10।
सरित-सरोवर समूह का जल।
बना हुआ दिव्य, था झलकता।
सुवीचियों-बीच स्वच्छ उज्ज्वल।
प्रकाश का बिम्ब था ढलकता।11।
हरी भरी भूमि का सरोवर।
सुभव्य था चारुता बड़ी थी।
रजत बनाई विशाल चादर।
सुशष्प के मधय में पड़ी थी।12।
अनेक छोटे बड़े जलाशय।
जहाँ तहाँ थे अजब दमकते।
प्रदीप्त नभ में नछत्र कतिपय।
सतेज हैं जिस तरह चमकते।13।
अनेक सितकर प्रदीप्त निर्झर।
असंख्य मोती उछालते थे।
निसार करके कवीक पति पर।
उमंग अपनी निकालते थे।14।