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नागमती-सुवा-संवाद-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी

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मुखपृष्ठ: पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी

दिन दस पाँच तहाँ जो भए । राजा कतहुँ अहेरै गए ॥ नागमती रूपवंती रानी । सब रनिवास पाट-परधानी ॥ कै सिंगार कर दरपन लीन्हा । दरसन देखि गरब जिउ कीन्हा ॥ बोलहु सुआ पियारे-नाहाँ । मोरे रूप कोइ जग माहाँ ?॥ हँसत सुआ पहँ आइ सो नारी । दीन्ह कसौटी ओपनिवारी ॥ सुआ बानि कसि कहु कस सोना । सिंघलदीप तोर कस लोना ?॥ कौन रुप तोरी रुपमनी । दहुँ हौं लोनि, कि वै पदमिनी ?॥

जो न कहसि सत सुअटा तेहि राजा कै आन । है कोई एहि जगत महँ मोरे रूप समान ॥1॥

सुमिरि रूप पदमावति केरा । हँसा सुआ, रानी मुख हेरा ॥ जेहि सरवर महँ हंस न आवा । बगुला तेहि सरस हंस कहावा ॥ दई कीन्ह अस जगत अनूपा । एक एक तें आगरि रूपा ॥ कै मन गरब न छाजा काहू । चाँद घटा औ लागेउ राहू ॥ लोनि बिलोनि तहाँ को कहै । लोनी सोई कंत जेहि चहै ॥ का पूछहु सिंघल कै नारी । दिनहिं न पूजै निसि अँधियारी ॥ पुहुप सुवास सो तिन्ह कै काया । जहाँ माथ का बरनौं पाया ?॥

गढी सो सोने सोंधे, भरी सो रूपै भाग । सुनत रूखि भइ रानी, हिये लोन अस लाग ॥2॥

जौ यह सुआ मँदिर महँ अहई । कबहुँ बात राजा सौं कहई ॥ सुनि राजा पुनि होइ वियोगी । छाँडे राज, चलै होइ जोगी ॥ बिख राखिय नहिं, होइ अँकूरू । सबद न देइ भोर तमचूरू ॥ धाय दामिनी बेगि हँकारी । ओहि सौंपा हीये रिस भारी ॥ देखु सुआ यह है मँदचाला । भएउ न ताकर जाकर पाला ॥ मुख कह आन, पेट बस आना । तेहि औगुन दस हाट बिकाना ॥ पंखि न राखिय होइ कुभाखी । लेइ तहँ मारू जहाँ नहिं साखी ॥

जेहि दिन कहँ मैं डरति हौं, रैनि छपावौं सूर । लै चह-दीन्ह कवँल कहँ, मोकहँ होइ मयूर ॥3॥

धाय सुआ लेइ मारै गई । समुझि गियान हिये मति भई ॥ सुआ सो राजा कर बिसरामी । मारि न जाइ चहै जेहि स्वामी ॥ यह पंडित खंडित बैरागू । दोष ताहि जेहि सूझ न आगू ॥ जो तिरिया के काज न जाना । परै धोख, पाछे पछिताना ॥ नागमति नागिनि-बुधि ताऊ । सुआ मयूर होइ नहिं काऊ ॥ जौ न कंत के आयसु माहीं । कौन भरोस नारि कै वाही ?॥ मकु यह खोज निसि आए । तुरय-रोग हरि-माथे जाए ॥

दुइ सो छपाए ना छपै एक हत्या एक पाप । अंतहि करहिं बिनास लेइ, सेइ साखी देइँ आप ॥4॥

राखा सुआ, धाय मति साजा । भएउ कौज निसि आएउ राजा ॥ रानी उतर मान सौं दीन्हा । पंडित सुआ मजारी लीन्हा ॥ मैं पूछा सिंघल पदमिनी । उतर दीन्ह तुम्ह, को नागिनी ?॥ वह जस दिन, तुम निसि अँधियारी । कहाँ बसंत; करील क बारी ॥ का तोर पुरुष रैनि कर राऊ । उलू न जान दिवस कर भाऊ ॥ का वह पंखि कूट मुँह कूटे । अस बड बोल जीभ मुख छोटे ॥ जहर चुवै जो जो कह बाता । अस हतियार लिए मुख राता ॥ । माथे नहिं बैसारिय जौ सुठि सुआ सलोन । कान टुटैं जेहि पहिरे का लेइ करब सो सोन ?॥5॥

राजै सुनि वियोग तस माना । जैसे हिय विक्रम पछिताना ॥ बह हीरामन पंडित सूआ । जो बोलै मुख अमृत चूआ ॥ पंडित तुम्ह खंडित निरदोखा । पंडित हुतें परै नहिं धोखा ॥ पंडित केरि जीभ मुख सूधी । पंडित बात न कहै बिरूधी ॥ पंडित सुमति देइ पथ लावा । जो कुपंथि तेहि पँडित न भावा ॥ पंडित राता बदन सरेखा । जो हत्यार रुहिर सो देखा ॥ की परान घट आनहु मती। की चलि होहु सुआ सँग सती ॥

जिनि जानहु कै औगुन मँदिर सोइ सुखराज । आयसु मेटें कंत कर काकर भा न अकाज ?॥6॥

चाँद जैस धनि उजियारि अही । भा पिउ-रोस, गहन अस गही ॥ परम सोहाग निबाहि न पारी । भा दोहाग सेवा जब हारी ॥ एतनिक दोस बिरचि पिउ रूठा । जो पिउ आपन कहै सो झूठा ॥ ऐसे गरब न भूलै कोई । जेहि डर बहुत पियारी सोई ॥ रानी आइ धाय के पासा । सुआ मुआ सेवँर कै आसा ॥ परा प्रीति-कंचन महँ सीसा । बिहरि न मिलै, स्याम पै दीसा ॥ कहाँ सोनार पास जेहि जाऊँ । देइ सोहाग करै एक ठाऊँ ॥

मैं पिउ -प्रीति भरोसे गरब कीन्ह जिउ माँह । तेहि रिस हौं परहेली, रूसेउ नागर नाहँ ॥7॥

उतर धाय तब दीन्ह रिसाई । रिस आपुहि, बुधि औरहि खाई ॥ मैं जो कहा रिस जिनि करु बाला । को न गयउ एहि रिस कर घाला ?॥ तू रिसभरी न देखेसि आगू । रिस महँ काकर भयउ सोहागू ?॥ जेहि रिस तेहि रस जोगे न जाई । बिनु रस हरदि होइ पियराई ॥ बिरसि बिरोध रिसहि पै होई । रिस मारै, तेहि मार न कोई ॥ जेहि रिस कै मरिए, रस जीजै । सो रस तजि रिस कबहुँ न कीजै ॥ कंत-सोहाग कि पाइय साधा । पावै सोइ जो ओहि चित बाँधा ॥

रहै जो पिय के आयसु औ बरतै होइ हीन । सोइ चाँद अस निरमल, जनम न होइ मलीन ॥8॥

जुआ-हारि समुझी मन रानी । सुआ दीन्ह राजा कहुँ आनी ॥ मानु पीय ! हौं गरब न कीन्हा । कंत तुम्हार मरम मैं लीन्हा ॥ सेवा करै जो बरहौ मासा । एतनिक औगुन करहु बिनासा ॥ जौं तुम्ह देइ नाइ कै गीवा । छाँडहुँ नहिं बिनु मारे जीवा ॥ मिलतहु महँ जनु अहौ निनारे । तुम्ह सौं अहै अदेस, पियारे !॥ मैं जानेउँ तुम्ह मोही माहाँ । देखौं ताकि तौ हौ सब पाहाँ ॥ का रानी, का चेरी कोई । जा कहँ मया करहु भल सोई ॥

तुम्ह सौं कोइ न जीता, हारे बररुचि भोज । पहिलै आपु जो खोवै करै तुम्हार सो खोज ॥9॥



(1) ओपनिवारी = चमकानेवाली । बानि =वर्ण । कसि = कसौटी पर कसकर । लोनी, लावण्यमयी, सुंदरी । आन =शपथ, कसम । (2) सौंधे = सुगंध से । (3) तमचूर = ताम्र चूड, मुर्गा । "शब्द न देइ....तमचूरू" अर्थात मुर्गा कहीं पद्मावती-रूपी प्रभात की आवाज न दे कि हे राजा उठ! दिन की ओर देख । कवि ऊपर कह चुका है कि "दिनहिं न पूजै निसि अँधियारी "। धाय = दाई, धात्री । दामिनी = दासी का नाम । मयूर = मोर । मोर नाग का शत्रु है, नागमती के वाक्य से शुक के शत्रु होने की ध्वनि निकलती है । `कमल' में पद्मावती की ध्वनि है । (4) बिसरामी = मनोरंजन की वस्तु । खंडित बैरागू =बैराग्य में चूक गया इससे तोते का जन्म पाया । काऊ = कभी । मकु = शायद, कदाचित । तुरय = तुरग, घोडा । ताऊ= उसकी । हरि = बंदर । तुरय...जाए = कहते हैं कि घुडसाल में बंदर रखने से घोडे नीरोग रहते हैं, उनका रोग बंदर पर जाता है । सेइ = वे ही । हत्या और पाप ही । (5) कूट = कालकूट, विष । कूटे =कूट कूटकर भरे हुए बैसारिये = बैठाइए । (6) तुम्ह खंडित = तुमने खंडित या नष्ट किया । सरेख =सज्ञान, चतुर ,। मती = विचार करके । (7) दोहाग = दुर्भाग्य । विरचि = अनुरक्त होकर । देइ सोहाग (क) सौभाग्य, (ख) सोहागा दे । परहेली = अवहेलना की, बेपरवाही की । (8) आगू = आगम, परिणाम । जोग न जाई =रक्षा नहीं किया जाता । बिरस = अनबन । साधा = साध या लालसा मात्र से । हीन = दीन, नम्र ।