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कुण्डलिया / सीताराम झा
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देशक गौरव जाहि सँ बढ़ए करी से काज,
उपयुक्ते बाजी जकर आदर करए समाज,
आदर करए समाज जकर से रीति बनाबी,
तजी अनवसर क्रोध, लोभ नहि कतहु जनाबी,
पैर धरी तहि ठाम जतए नहि भय हो ठेसक,
पहिने अपने सुधरि, बनी पुनि पर-उपदेशक।