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रत्नसेन-साथी-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी

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रत्नसेन गए अपनी सभा । बैठे पाट जहाँ अठ खंभा ॥
आइ मिले चितउर के साथी । सबै बिहँसि कै दीन्ही हाथी ॥
राजा कर भल मानहु भाई । जेइ हम कहँ यह भूमि देखाई ॥
हम कहँ आनत जौ न नरेसू । तौ हम कहाँ, कहाँ यह देसू ॥
धनि राजा तुम्ह राज बिसेखा । जेहि के राज सबै किछु देखा ॥
बोगबिलास सबै किछु पावा । कहाँ जीभ जेहि अस्तुति आवा ?॥
अब तुम आइ अँतरपट साजा । दरसन कहँ न तपावहु राजा ॥

नैन सेराने, भूख गइ देखे दरस तुम्हार ।
नव अवतार आजु भा, जीवन सफल हमार ॥1॥

हँसि कै राज रजायसु दीन्हा । मैं दरसन कारन एत कीन्हाँ ॥
अपने जोग लागि अस खेला । गुरु भएउँ आपु, कीन्ह तुम्ह चेला ॥
अहक मोरि पुरुषारथ देखेहु । गुरु चीन्हि कै जोग बिसेखेहु ॥
जौ तुम्ह तप साधा मोहिं लागी । अब जिनि हिये होहु बैरागी ॥
जो जेहि लागि सहै तप जोगू । सो तेहि के सँग मानै भोगू ॥
सोरह सहस पदमिनी माँगी । सबै दीन्हि, नहिं काहुहि खाँगी ॥
सब कर मंदिर सोने साजा । सब अपने अपने घर राजा ॥

हस्ति घोर औ कापर सबहिं दीन्ह नव साज ।
भए गृही औ लखपती, घर घर मानहु राज ॥2॥


(1) हाथी दीन्हीं = हाथ मिलाया । भल मानहु = भला मनाओ, एहसान मानो । अंतरपट साजा = आँख की ओट में हुए । तपावहु = तरसाओ । सेराने = ठंडे हुए ।

(2) एत = इतना सब । अहक = लालसा । काँगी = घटी; कम हुई ।