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युग-चक्र / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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चक्रक गति निर्माणक युगमे
उनटे तेरह चास करै छथि
अपन प्रशंसा अपने मुँहसँ
द्वारि-द्वारिपर कएने घूरथि
जकर जेहन छै चालि तकर संग
टुकदुम-टुकदुम तहिना पूरथि
बैसल बगुलीकेर टकाकें
पाँचक आइ पचास करै छथि।
जे जेम्हरे पौलनि, सन्हिअएला
जे जेम्हरे चुकला, भुतिअएला
छल सुतिआयल, से अछि कोंढ़गर
भोंटगर सब सहजहिं सुतिआएल
बहुतोमे उल्लास भरल आ
बहुतो दीर्घ-निसास भरै छथि
बुझनुक सब धोकड़ी बनबौलनि
किछु पुजने, सब ठाम पुजौलनि
जे जेम्हरे पौलनि, से धएलनि
किछु खएलनि, किछु काँख दबौलनि
युग धएलक अछि तेहन चालि
ब्रह्मा झा सेहो फाँस पड़ै छथि
ढोलकी पर की-की ने बाजत
बुढ़बा सब की-की ने साजत
जतय भयंकर दाग पड़ल अछि
ततए-ततए अँकड़ी दप माँजत
छुछुआएल हम सभ फिरतै छी
ओ सब भोग-विलास करै छथि
आके-धुथुर खाथु ने बैसल
तनिको पेट दरिद्रे पैसल
महादेव छथि वज्र-बूढ़, जग
जनिका अढरन-ढरन बूझै छल
घोंटि-घोंटि तनिको लए राखू
अच्छत-फूल निघास करै छथि
राकस जकाँ करै छथि भुक-भुक
तें करैत अछि जी मे धुक-धुक
अस्ताचल धरि पहुँचि कतेको
आब करै छथि लुक-झूक, लुक-झूक
हँफने छथि सरिआ कए जे सब
से की घोड़ी-घास करै छथि
उनटे तेरह चास करै छथि