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पातक किलोल: आस्थाक दर्द / रामानुग्रह झा
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बिहाड़िमे उड़िआइत पातक किलोल
कि क्षणमे वृक्ष भागि जाइछ हमरासँ दूर
कि धूमिल कम्बलसँ वातायनकें
अछि झाँपि देने आन्हर बिहाड़ि ई।
छोट-पैघ सब तरहक, सबहक पलकें
झाँपि रहल अछि, अनास्थाकेर कण कते,
कि दृश्य झलफल, अदृश्य, झलफल मार्ग-
सब अज्ञात, छल जे ज्ञात से अज्ञात तैं।
कोन समय ई ? साँझ, दुपहर, वा राति ?
भेल पराजय गति केर की आइ कालसँ ?
की थिक ई ? संक्रमण अथवा पिपर्यय ?
विध्वंसक सर्किलमे घेरल सबहक प्राण !
छोट-पैघ वृक्षकेर खसल-झड़ल पात
कागजी अस्तित्व ल’ अंगदीप पैर पर
प्रार्थना करैछ: ‘जागह हे ज्योतिपुंज !
हमरा नहि बरू, बुझा दहक बाट बतहा बिहाड़िकें।’