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कतए अछि हमर देश / ललितेश मिश्र
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सुरक्षा आ हित साधनक नाम पर
हमरालोकनि युग-युगान्तरसँ
ढाहने जाइत छी पहाड़
कोड़ने जाइत छी वन-प्रान्तर
बन्हने जाइत छी नदी ओ आकाश
मुदा, कहाँ बचि पबैत छी कहियो
आगि, पानि आ ठनकासँ
कहाँ मुक्त होइत छी
असुविधा, असमता, विषमतासँ ?
युग-युगान्तरसँ हमरा सभ
दौड़ैत रहल छी कोनो नाम
कोनो गाम लेल
मुदा,
सभ्यताक नव परिभाषा गढ़ैत
असभ्यताक प्रदर्शन करब
भ’ गेल अछि हमर नियति
कोनो गाम, कोनो सार्थक नाम लेल
कोनो छाहरि तरक मचान लेल
सभ्यता ओ असभ्यताक मध्य
पसरल द्वन्द्व ओ विवादक माँझ पड़ल
अनिर्णित हमर मनुक्ख
विवश अछि सोचबाक लेल युग-युगान्तरसँ
कतए अछि हमर देश
किएक लुप्त भेल हमरा लोकनिक भेष...।