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अभियान / ललितेश मिश्र

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कोनो भदबारि-रातिमे
लेधरल बहुत रास बादरि मध्य
घेरा कए
एकसरूआ चाल लगैछ,
कोनो एकटा मुनक्ख जकाँ-
बेबस, पराजित, नत ग्रीव
कारी बादरिक वितान मध्य
पराभव उघैत
हमरा, एकसर यात्री चान जकाँ,
अपन मरणशीलतासँ, अपन नियतिसँ
अपन पतनशील जीवन-व्यवस्थासँ
कोनो दुःख नहि अछि
जँ हम तोड़ि नहि सकैत छी
भदवारि रातिक
कांरी बादरि केर चक्रव्युह...
जँ हम नवोदित सुरूजक स्वागतमे
नहि जाए सकैत छी
एटलांटिकक लिधुराह हिलकोर धरि...।
खुशी-खुशी गर्दनि झुकौने
कोनो भदवारि रातिक मेघाच्छन्न आकाशमे
घेराएल, निरूपाय भेल चान जकाँ
हमरालोकनिकें अपन मृत्यु, अपन अन्त
स्वीकार्य होएबाक चाही
पराभवक यंत्रणा-बोधक
एक गोट सार्थक
समाप्ति उपक्रम/अभियान होएबाक चाही।