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खिड़की खोलि दिऔ / सुस्मिता पाठक

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उठू आ खिड़की खोलि दिऔ
संभव हो तँ दरबज्जो खोलि दिऔ
स्वजन सब
स्नेहक अजीब मूल्यांकन कएलनि
सबटा दरबज्जा स्वयं बन्न क’ लेलनि

हमरा लग आब किछुआ बचल नहि अछि
जे चोर ल’ जाएत उठा क’
वा लुटि ल’ जाएत कोनो लुटेरा
अन्हारे बैसल अछि पहरा पर
आब कथीक डर

खिड़कीसँ बाहर बहुत रास शीतल हवा
ताक-झाँक करैत अछि
खिड़की खोलि दिऔ मीत
हम ओकरा अपन फेफड़ामे
क’ लेब एकाकार

पराजयक पीड़ासँ आत्मसंघर्षरत
ने तँ एतेक निर्बल छी
जे बिगड़ि जाएत मानसिक संतुलन
जे एतेक हिम्मति
जे आत्मघात क’ ली
एहि दुनूक बीचक परिस्थितिसँ
उबरबाक लेल
जरूरी थिक खिड़कीक खुजब
उठू आ खिड़की खोलि दियौ।