चाहत के चोचले / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
देख कर के मुझको रोती।
रो सके तो तू भी रो दे।
जलाता है क्यों तू इतना।
जलद जल देता है तो दे।1।
कह रही हूँ अपनी बातें।
क्यों नहीं उसको सुन पाता।
गिरा जाता है मेरा जी।
गरजता क्यों है तू आता।2।
टपकता है तुझको देखे।
कलेजे का मेरे छाला।
मिला जैसा काला तन है।
न कर तू दिल वैसा काला।3।
फेर में क्यों पड़ जाती हूँ।
बावली सी क्यों फिरती हूँ।
घिर रहा है तो तू घिर ले।
दुखों से मैं क्यों घिरती हूँ।4।
बरस, क्यों घड़ियाँ बनती हैं।
कलपता है क्यों मन मेरा।
बरसने लगती हैं आँखें।
क्यों बरसना देखे तेरा।5।
लाग क्या मुझ से है उसको।
जी जला कर क्या पाती है।
कौंधा कर के तुझ में बिजली।
किसलिए आग लगाती है।6।
आँख तुझ पर पड़ते ही क्यों।
आँख में कोई फिरता है।
देख कर के बूँदें गिरतीं।
किसलिए आँसू गिरता है।7।
कहाँ तो है तू रस वाला।
तरल क्यों है कहलाता तू।
तरसते मेरे तन मन को।
जो नहीं तर कर पाता तू।8।
हवा पर रहता है तो रह।
बे तरह काहें मुड़ता है।
उड़ रहा है तो तू उड़ ले।
किसी का जी क्यों उड़ता है।9।
रात है कितनी अँधियारी।
अँधेरा जी में है छाया।
न कर अंधेर मेघ तू भी।
किसलिए अंधापन भाया।10।