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टूटे तार / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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उँगलियों से छिड़ते जिस काल।
सुधा की बूँदें पाते कान।
धुन सुने सिर धुनते थे लोग।
तान में पड़ जाती थी जान।1।

रगों में रम जाती थी रीझ।
कंठ का जब करते थे संग।
मीड़ जब बनते मिले मरोड़।
थिकरने लगती लोक उमंग।2।

निकलते थे इन में वे राग।
गलों के जो बनते थे हार।
सुरों में मिलती ऐसी लोच।
बरस जाती थी जो रस धार।3।

मनों को जो ले लेती मोल।
वह लहर इन से पाती बीन।
सितारों में भरते वह गूँज।
दिलों को जो लेती थी छीन।4।

बोल थे इन के बड़े अमोल।
कभी इन में भी थे झंकार।
करेगा प्यार इन्हें अब कौन।
आज तो हैं ये टूटे तार।5।