दिल / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
बरस पड़ते उन को देखा।
पड़ा था रस जिन के बाँटे।
खिले जो मिले गुलाबों से।
खटकते थे उन के काँटे।1।
भरी पाईं उन में भूलें।
दिखाये जो भोले भाले।
चाँद जैसे जो सुन्दर थे।
मिले उन में धब्बे काले।2।
रहे जो रुई के पहल से।
बिनौले कम न मिले उन में।
सदा वे करते मनमानी।
मस्त जो थे अपनी धुन में।3।
बहर जैसे जो गहरे थे।
बिपत उनकी लहरें ढातीं।
रहे जो हरे भरे बन से।
बलाएँ उन में दिखलातीं।4।
मिले जो कोमल फूलों से।
बात कहते वे कुम्हलाते।
हवा सा सुबुक जिन्हें पाया।
धूल से वे थे भर जाते।5।
उमड़ते जो बादल जैसा।
पिघल कर आँसू बरसाते।
गिराते थे वे ही ओले।
बे तरह बिजली चमकाते।6।
आप जल जल जो दीपक सा।
उँजाला थे घर में करते।
जले झुलसे उनसे कितने।
वे रहे काजल से भरते।7।
मिले जो जल जैसे ठंढे।
रहे जो सारा मल धोते।
उन्हें देखा नीचे गिरते।
आँच लग गये गर्म होते।8।
तेज सूरज सा था जिनका।
दूर करते जो अँधियारा।
नहीं उनके जैसा पाया।
आग का बरसाने वाला।9।
छिपे सौ परदों में जो थे।
गये वे भी तिल तिल देखे।
कसर के बिना किसे पाया।
खोल कर लाखों दिल देखे।10।