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नशा / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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पीना नशा बुरा है पीये नशा न कोई।
है आग इस बला ने लाखों घरों में बोई।1।

उसका रहा न पानी।
जिसने कि भंग छानी।
क्यों लाख बार जाये वह दूध से न धोई।2।

चंड की चाह से भर।
किस का न फिर गया सर।
पी कर शराब किसने है आबरू न खोई।3।

चसका लगे चरस का।
रहता है कौन कस का।
चुरटों की चाट ने कब लुटिया नहीं डुबोई।4।

क्या रस है ऊँघने में।
सुँघनी के सूँघने में।
उसने कभी न सिर पर गठरी सुरति की ढोई।5।

लगती नहीं किसे वह।
ठगती नहीं किसे वह।
सुरती बिगाड़ती है लीपी पुती रसोई।6।

अफयून है बनाती।
छलनी समान छाती।
यह देख बेबसी कब मुँह मूँद कर न सोई।7।

जी देख कर सनकता।
घुन देख तन में लगता।
कब सुधा गँजेड़ियों की सर पीट कर न रोई।8।