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मेरा शहर / राजेश श्रीवास्तव

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यहाँ अपनी सुबह , न शाम, न दोपहर है दोस्तो,
ये मेरा दिल्ली शहर है दोस्तो।

उम्र से लंबी सड़कों पर, भागती भीड़ वाली दिल्ली,
प्लास्टर में तनकर बैठी, टूटती रीढ़ वाली दिल्ली,
चंद सफेदपोश यूकिलिप्टसों से घिर कर रह गई है
कभी आम, नीम, बरगद, अशोक,चीड़ वाली दिल्ली

आडम्बर का थियेटर है दोस्तो
ये मेरा दिल्ली शहर है दोस्तो।

यहां पहचान आदमी नहीं है, पहचान है रूपया धेला,
सुबह से शाम तक बस, इसी एक पापी पेट का झमेला,
ऐसी विडम्बना तो इतिहासों में भी शायद न मिलेगी,
लाखों की भीड़ है यहाँ पर, मगर हर आदमी अकेला,

वक्त का बदला तेवर है दोस्तो,
ये मेरा दिल्ली शहर है दोस्तो।

व्यस्तताओं के इस शहर में सोने का वक्त नहीं है,
सैंकड़ों मरते हैं रोज़, मगर रोने का वक्त नहीं है,
इस शहर का आदमी सब कुछ हो सकता है लेकिन
उसके पास अभी बस आदमी होने का वक्त नहीं है,

भटकती बेघर लहर है दोस्तो,
ये मेरा दिल्ली शहर है दोस्तो।