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कविता नहीं कुरूक्षेत्र / राजेश श्रीवास्तव

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ये शहर
लिजलिजाहट भरे स्प र्शों
और संबंधों का है
ये शहर/ अमावस्याो में
रोशनी ढूंढते/अन्धोंय का है
हो सकता है/ ये शहर

कुछ न दे आपको
न सांत्व ना/न सहानुभूति
न अपनापन/ न मरहम
मगर जख्म न दे/ नमक न दे
यह नहीं हो सकता।

पता नहीं/दौड़ती हैं गाडि़यॉं या सड़कें
भागता है आदमी या उम्र
कटता है वक्ती या आदमी स्वकयं से
ये सोचने से पहले ही
इस शहर का हर बच्चा/जवान हो जाता है
और जवानी/सोचने के लिए नहीं होती
इसलिए हर कोई
अपने बचपन की ओर भागता है।

बस्तों के बोझ से
छिल गयी हैं/मासूम हथेलियाँ
बच्चें स्कूबलों में नहीं
अब यातनागृहों में जाते हैं
जहँ ‘अ’ से अनार/ ‘आ’ से आम नहीं
‘अ’ से अज्ञात/’आ’ से आतंकवादी पढ़ाया जाता है

सॉंझ ढले/ जब लौटता है बच्चाा
तो चेहरे पर
खेलने की ललक नहीं/ दुबकने की दहशत होती है
‘गॉंधी’ ‘गांडीव’ हो गया है अब
कलम की जगह
हाथों में आ गयी हैं बन्दूंकें
अब कविता नहीं/ कुरूक्षेत्र लिखा जाता है