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ओ संवेदनहीन मित्र / राजेश श्रीवास्तव

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मैंने कई बार कोशिश की है
तुम्हारी आँखों की भूलभुलैया में
सीढि़या उतरते हुए
किसी सूखे अंधकूप में बंद पड़े
तुम्हारे वनवासित हृदय की गहराईयों तक पहुँचूं
और कुछ धड़कनें स्थायी रूप से
अपने नाम कर लूँ

कुछ ऐसी धड़कनें
जो मेरे आने पर धड़कें
जो मेरे जाने पर धडकें
सुबह और शाम-रोज तुम्हारे सिरहाने पर धड़कें।

मैं जानता हूँ बहुत व्यस्त हो तुम
इधर से, उधर से, बाहर से, भीतर से बहुत त्रस्त हो तुम।
तुम्हारी शिराओं में
रक्त जैसा तो कुछ है मगर रक्त नहीं है
तुम्हारी बाहर की दुनिया में,
भीतर के लिए वक्त नहीं है।
इसलिए मैं चाहता हूँ कि
अपनी संवेदनाओं की कुछ गज़ ज़मीन
तुम्हें दान कर दूँ
अपनी अनुभूतियों की कुछ बूँदें
तुम्हारी मृतप्राय: धमनियों में भर दूँ।
मगर ये भी जानता हूँ कि
मेरे ये समस्त प्रयास निष्फल ही जाएँगे
क्योंकि तुम्हारी शिराओं में रक्त जैसा तो कुछ है, मगर रक्त नहीं है
तुम्हारे पास मेरे लिए तो क्या अपने लिए भी वक्त नहीं है।

मुझे पता है-
सहानुभूति और समानुभूति के पृष्ठों को
तुमने अपनी जिंदगी की पुस्तक से फाड़ दिया है,
और संवेदनाओं को चाँदी के रूपयों से भरी हंडिया की तरह
हिफाजत से कहीं गहरा गाड़ दिया है।

तुम्हारे इस शरीर में
न धड़कनें हैं, न संवेदनाएँ,
न अनुभूतियाँ हैं न समानुभूतियाँ,
मगर किस सफाई से तुमने यह राज दबा रखा है
चेहरे की परतों के भीतर वर्षों से छुपा रखा है।
शायद तुम्हारे जीते जी ये राज
इन परतों में ही दफन रहेगा,
और मरने के बाद भी किसे पता चलेगा
क्योंकि तब तुम्हारे चेहरे सफेद निर्मल कफन रहेगा।